राजस्थानी हस्तकलाएँ
- हाथो द्वारा कलात्मक एवं आकर्षक वस्तुएं बनाना ही हस्तकला या हस्तशिल्प कहलाती है |
- भारतवर्ष में राजस्थान में निर्मित कलात्मक वस्तुएं का महत्वपूर्ण स्थान है जैसे-थैवा कला, कुन्दन कला, रत्न व मीनाकारी आदि |
- लधु उद्योग निगम का संरक्षण हस्तशिल्प उद्योगों को मिलने के कारण एवं पिछले कुछ वर्षो से राजस्थानी हस्तशिल्प कलाकृतियों की बढती विदेशी मांग से इस क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में वृद्दि हुई है जिसके परिणास्वरूप नवयुवक हस्तशिल्पियों ने समय की मांग के अनुसार अधिक कलात्मक वस्तुएं बनाना प्रारम्भ किया है |
- राज्य के आर्थिक विकास की क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिए राजस्थान की औद्योगिक निती 1992 के अंतर्गत हस्तशिल्प उद्योग पर विशेष बल दिया गया है |
- राजस्थान की औधोगिक निति 1998 में हस्तकला उद्योग को विशेष महत्व प्रदान किया गया है जिसका उद्देश्य क्षेत्रीय निर्यात करने से विदेशी मुद्रा प्राप्त करने वाला यह प्रमुख स्रोत है |
राजस्थान की प्रुमख हस्तकलाएँ
लाख व काँच का सामान
- लाख के अंतर्गत इससे बनने वाली बहुरंगी चुदियाँ व चुडों पर काँच के गोल, चौकोर विभिन्न आकार के दुग्ध-धवल रंग के काँच चिपकाएँ जाते है | जयपुर व जोधपुर में लाख से सजावटी वस्तुएं, मूर्तियाँ, हिंडोले, गुलदस्ते, गले का हार, अंगूठी, कर्णफूल, झुमके, चाबियां के गुच्छे अदि बनाये जाते है | लाख के आभूषण एवं खिलौनों का निर्माण उदयपुर में अधिक होता है एवं इससे बनी चूड़ियाँ मोकङी कहलाती है |
- लाख के बने चौड़े डंकवाले चुडे को पाटला, छोटी-छोटी अंगूठियों को लाखोठल्या, दो या तीन अंगुल चौड़ाई वाली चूड़ी को पठाणी, चार चूड़ियाँ का या आठ चूड़ियों का जोड़ा मूंठियां तथा तीन अंगुल से ज्यादा चौड़ाई वाली चूड़ी को फट्टा/पट्टा नाम से पुकारा जाता है |
- मीनाकारी एवं मूल्यवान रत्नों की कटाई – मीनाकारी के कार्य के अन्दर मूल्यवान व अर्द्धमूल्यवान रत्नों अथवा सोने से निर्मित हल्के आभूषणओ पर कलात्मक कार्य किया जाता है | मीनाकारी के कार्य की सर्वोत्कृष्ट कृतियाँ जयपुर में तैयार की जाती है | परन्तु प्रतापगढ़ की मीनाकारी के अंतर्गत स्वर्ण आभूषणओं पर हरे रंग को आधार बनाकर किया जाने वाला कार्य अति सुंदर है | मीनाकारी के पाश्चात्य मीने के रंगों व देशी रंगों का प्रयोग किया गया है | मीनाकारी में मिट्टी पकाई जाती है | यह पक्की मीनाकारी कहलाती है | पक्की मीनाकारी में बर्तनों एवं खिलोनों पर रंगों का कार्य किया जाता है | जयपुर में मूल्यवान एवं अर्द्धमूल्यवान पत्थरों की सुघड़तापूर्वक कटाई, जड़ाई और डिजाइन का कार्य सम्पूर्ण भारत में विख्यात है | सोने चांदी के कलात्मक आभूषण बनाने के लिए जयपुर, जोधपुर, अजमेर व उदयपुर के स्वर्णकार प्रसिद्ध है |
- सोने एवं प्लेटिनम के आभूषणओं में रत्नाकर की जड़ाई का काम भी बहुत सुंदर होता है | इसे कुन्दन कला कहते है | जयपुर में इसका सर्वाधिक कार्य होता है |
- आजकल प्राकृतिक एवं कृत्रिम रत्नों की कलात्मक कटाई एवं पॉलिश के कार्य में निरंतर वृद्दि होती जा रही है | जयपुर में इसका प्रशिक्षण केन्द्र भी है |
- कागज जैसे पतले पत्थर पर मीनाकारी करने में बीकानेर के मीनाकार प्रसिद्ध है |
- कोफ्तगिरी – फौलाद की बनी हुई वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की जड़ाई कोफ्तगिरी कहलाती है | कोफ्तगीति कला दमिश्क से पंजाब लाइ गई और वहाँ से गुजरात एवं राजस्थान में इसे लाया गया | कोफ्तगिरी जयपुर एवं अलवर में बहुतायत से होती है |
- तहनिशाँ के काम में डिजाइन को गहरा खोद कर उसमे पतला तार भर दिया जाता है |अलवर के तलवारसाज एवं उदयपुर के सिगलीगर यह काम सुंदर ढंग से करते है |
हाथी दांत की वस्तुएं
- राजस्थान में हाथी दांत से चूड़ियाँ, कंघे, खिलौने, शतरंज, मोहरें, मूर्तियाँ, पशु-पक्षी, हुक्केदानी, गिलास, फुल-पत्तियां एवं बारीक जालीदार कटाई से युक्त अनेक कलात्मक वस्तुएं भरतपुर, मेड़ता, उदयपुर, जयपुर तथा पाली में बनाई जाती है |
- राजस्थान में राजपूत महिलाओं को विवाह के समय हाथी दांत से बना चुडा पहनाये जाने की प्रथा है |
- जोधपुर में कलाई, हरी एवं लाल धारियां की चूड़ियाँ बड़े पैमाने पर बनाई जाती है |
संगरमर की मूर्तियाँ
- जयपुर को मूर्तिकला का विशेष केन्द्र कहा जाता है | यहाँ महापुरुषों, देवी-देवताओं, संतों, महात्माओं आदि की मूर्तियाँ काफी आकर्षक ढंग से बनाई जाती है |
- जयपुर से विदेशों को भी संगमरमर की मूर्तियाँ का निर्यात किया जाता है |
- अलवर के पास किशोरी ग्राम में भी संगरमर की मूर्तियाँ एवं घरेलू उपयोग की वस्तुएं निर्मित की जाती है |
ऊनी कम्बल व कालीन
- जयपुर, जोधपुर एवं अजमेर के कम्बल प्रसिद्ध है |
- कलात्मक ऊनी कालीन ईरानी व भारतीय पद्दति से जयपुर, बीकानेर, बाड़मेर में बनाये जाते है |
- बीकानेर में नमदे बनते है एवं यहाँ के कालीन विदेशो को भेजे जाते है |
पीतल पर मीनाकारी
- इसके अंतर्गत पीतल की घिसाई, पॉलिश एवं उसपर कलात्मक मीनाकारी की सजावटी वस्तुएं बनाने का कार्य होता है | यह कार्य जयपुर और अलवर में मुख्य रूप से होता है |
- इसके अतिरिक्त इसमें बिभिन्न प्रकार के छोटे एवं बड़े आकार के पशु-पक्षी, जालीदार, झाडफानूस, कलात्मक फू लदान, फलदान, गुलदस्ते, लैम्प स्टैण्ड, देवी देवताओं के सिंहासन, दीपदान आदि अनेक कलात्मक वस्तुएं सजावट वस्तुएं सम्मिलित है |
- जोधपुर में बादला नाम का बर्तन पानी को ठण्डा रखने के लिए जस्ता का बनाया जाता है जिसके ऊपर सजावट की जाती है |
कशीदाकारी
- राजस्थान में की जाने वाली कशीदाकारी में हाथी, ऊंट, कमल, मोर विभिन्न सुंदर डिजाइनो में बनते है और ये राजस्थानी कशीदाकारी के प्रतीक बन गये है |
- जयपुर, जोधपुर, अजमेर, उदयपुर और कोटा की डोरियाँ साड़ियाँ विशेष उल्लेखणीय है |
- कोटा की मसुरियां, मलमल व कोटा की डोरियाँ साड़ियाँ विशेष उल्लेखनीय है | राजस्थान में रेस्तिछमाई के ओढने पर जरिभांत की कशीदाकारी जैसलमेर में होती है |
- जैसलमेर में जमीन पर बिछाने वाली राली पर महीन कशीदाकारी होती है |
चमड़े पर हस्तशिल्प
- जयपुर और जोधपुर की नागरी और मोजडी जूतियाँ चमड़े से बनाई जाने वाली कलात्मक वस्तुओं में प्रमुख है जो अपनी कलात्मक सलमेसितारों और कशीदाकारी कार्य से सजी होने एवं हल्की होने के कारण प्रसिद्ध है |
- भीनमाल तथा जालौर की कशीदे वाली जूतियाँ पुरे मारवाड़ में प्रसिद्ध है |
- बडू (नागौर) में बनने वाली कशीदायुक्त जूतियों की मारवाड़ की एक परियोजना संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यू.एस.डी.पी. के तहत चलाई जा रही है |
- चमड़े की कलात्मक वस्तुओं में पर्स, बेल्ट, बैग, आसन आदि भी बनाये जाते है जो अपनी कलात्मक के लिए प्रसिद्ध है |
- राजस्थान की मरुभूमि के प्रमुख शहरों में ऊंट की खाल से अनेक प्रकार की आकर्षक एवं कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती है |
रंगाई, छपाई एवं बंधेज के वस्त्र
- नीलगरो एवं रंगरेजो द्वारा राज्य में कपड़े की रंगाई के कार्य किये जाते है |
- राजस्थान वस्त्रों की रंगाई एवं छपाई के लिए विश्व में विख्यात्त है |
- राज्य में सांगानेर, पाली, बाड़मेर में रंगाई, छपाई एवं बंधेज का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता है |
- सांगानेर की सांगानेरी नामक सुंदर डिजाइन की छपाई, चित्तौड गढ़ की जाजम, बाड़मेर की अजरक प्रिंट ण केवल भारत बल्कि विश्व में प्रसिद्ध है |
- किशनगढ़, चित्तौडगढ़ व कोटा में रुपहली व सुनहरी छपाई का कार्य किया जाता है |
- राजस्थान का बंधेज या मोठदा अति विख्यात है |
- जयपुर का लहरिया और पौमचा व अकोला की दाबू प्रिंट एव बंधेज अदितीय है |
- जयपुर और उदयपुर में लाल रंग की ओढ़निया पर गोंद की मिश्रित मिट्टी की छपाई एवं उसके बाद लकड़ी के छापों द्वारा सोने-चांदी के तबक की छपाई की जाती है | एसी छपाई को रेवड़ी की छपाई कहा जाता है |
- नागौर जिले की लाडनूं प्रिंट की साड़ियाँ ब्लॉक रोलर पद्दति तथा ठप्पा पद्दति की छपती है तथा लाडनूं प्रिंट के बंधेज भी प्रसिद्ध है |
- चित्तौडगढ़ के आकोला की दाबू प्रिंट जिसमे कपड़े के जिस भाग पर रंग नहीं चढाना हो उसे लुगदी अथवा लोई से दबा देते है यह विश्व में प्रसिद्ध है |
- चित्तौडगढ़ के छिपाओं के आकोला में जो हाथ की छपाई में लकड़ी के छापे प्रयोग किये जाते है उन्हें बतकाड़े कहा जाता है | इनका निर्माण खरादिए द्वारा किया जाता है |
- मेण का दाबू अथवा मोम कादाबू सवाईमाधोपुर, गेंहू के बीधंण का दाबू जयपुर से सांगानेर तथा बगरू में तथा मिट्टी की दाबू बाड़मेर के बालोतरा में प्रचलित है |
- जयपुर की सांगानेरी प्रिंट में चक्र, अशर्फी, धनियाँ, मींडकी दाख, चौबुन्दी छापों का प्रयोग किया जाता है |
- सांगानेरी प्रिंट मलमल तथा लट्ठे पर विशेष रूप से प्रसिद्ध है |
- जयपुर की सांगानेरी प्रिंट तथा बगरू प्रिंट के छापे सीसम, रोहिडा तथा सागवान इत्यादि लकड़ी के बनाये जाते है | छापों के ब्लॉक अलंकरण के अनुसार सस्ते महंगे होते है |
- लकड़ी के छापों से जो छपाई का कार्य होता है वह भांत अथवा ठप्पा कहलाता है |
- महिलाओं के पहनने एवं ओढने के वस्त्रों पर छीटों की छपाई भी होती है | जो मुख्य रूप से नानण व छपके वाली (छिपकली) दो प्रकार की होती है |
- बाड़मेर में रंगाई व छपाई की दो शैलियाँ प्रसिद्ध है मलीर प्रिंट, अजरक प्रिंट |सामान्तया मलीर में कत्थई तथा काले रंग लालिमा किये हुए होते है तथा अजरक प्रिंट में अधिकाँश लाल नीले रंगों की छपाई कार्य होता है |
- राजस्थान में महिलाओं की ओढनी जिसमे गुलाबी, पीली अथवा केसरिया रंग में कमल अथवा पद्म की आकृति के गोल घेरे अलंकृत होते है तथा ओढनी में चारो और लाल किनारा होता है, पोमचा कहलाता है |
- राजस्थान में सध्या प्रसूता का पीला पोमचा जिसका पल्ला लालकोर का होता है, ओढाया जाता है | यह सामान्तया पीहर से आता है |
- जयपुर के बने पचरंगी तथा सतरंगी लहरिये देश भर में प्रसिद्ध है | राजस्थान में सावन-भादों के महीने में विशेषकर छोटी तीज एवं बड़ी तीज पर महिलाएं लहरियां पहनती है |
- राजस्थान में चुनरी विश्व प्रसिद्ध है, चुनरी भांत की ओढनी में अनेक प्रकार के अलंकारिक अभिप्राय बनते है पशुओं में हाथी एवं पक्षियों में मोर की प्रमुखता से अंलकृत होता है |
- चुनरी में गोटा भी लगाया जाता है | पतला गोटा जमीन में तथा चौड़ा गोटा जिसे लप्पा कहते है आँचल में लगाया जाता है |
- पीले पोमचे का ही एक प्रकार पाटोदा का लुगड़ा सीकर के लक्ष्मणगढ़ तथा झुंझनु के मुकन्दगढ़ का प्रसिद्ध है |
- हाडौती के बंधेज में बूंदी की शिकारगाह अंकन की शैली अत्यधिक प्रसिद्ध है |
- बांकड़ी – तार वाले बदले से बनी एक प्रकार की बेल जो स्त्रियाँ अपने दुप्पटो और पोशाकों पर लगाती है |
- बिजिया – गोटे के फूलों को कहते है | और इससे बनी बेल को चम्पाकली कहते है |
- जरदोजी – सुनहरे धागों से कढाई की परम्परा को कहा जाता है |
- अड्डा –वह फ्रेम इस पर कपड़े को तान कर जरदोजी की कढाई की जाती है |
- गोटे का काम जयपुर व बातिक का काम खण्डेला में होता है | टुकड़ी मारवाड़ के देशी कपड़ों में आरी विशिष्ट स्थान रखती है तथ यह नागौर एवं मारोठ (नागौर) में बनाई जाती है |
- लप्पा, लप्पी, किरण, गोखरू आदि गोटे के प्रकार है |
- चौदानी- बुनाई में ही अलंकरण बनाते है और उसमे बने बिन्दुओं के आधार पर इन्हें चौदानी, सतदानी अरु नौदानी कहते है | चौड़ाई कम हो तो यही लप्पा, लप्पी कहलाने लगता है |
- कालाबत्तू- सुनहरा तार, इससे कढाई की जाती थी को कालाबट्टू कहते है |
- मुकेश – सूती या रेशमी कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिन्दकी की कढाई मुकेश कहलाती है |
- लहर गोड़ा – सामान्य खजूर की पत्तियों वाले अलंकरण युक्त गोटा लहर गोड़ा कहते है |
- नक्शी – पतले खजूर अलंकरण वाला गोटा को कहते है |
- किरण – बादले की झालर को कहा जाता है | यह सध्य विवाहिता की साडी के आँचल और घुंघट वाले हिस्से में लगता है |
- गोटे के राजस्थान में कई प्रकार है जिनमे लप्पा, लप्पी, गोखरू, बांकड़ी, किरण, बिजिया, मुकेश, नक्शी इत्यादि सर्वाधिक प्रसिद्ध है |
- जब कपड़े की बुनाई में बिन्दुओं के जो अलंकरण बनते है इन्ही के आधार पर इन्हें सतदानी, नौदानी इत्यादि कहा जाता है |
- गोटे का वह प्रकार जिसमे पतले खजूर की पत्तियां जैसा अलंकरण होता है लहर गोड़ा कहलाता है |
- गोटा का वह प्रकार जिसमे पतले खजूर का अलंकरण किया जाता है | नक्शी गोटा कहलाता है |
- महिलाओं के पहनावे पर जब बेल की आकृति जो तार से बादले से बनती है बांकड़ी गोटा कहलाता है |
- चम्पाकली की बेल में फूलों का अलंकरण किया जाता है उसे बिजिया कहा जाता है |
- राजस्थान में सुनहरे धागों से जो कढाई का कार्य किया जाता है उसे जरदोजी का कार्य कहा जाता है | इसमें जो सुनहरे तार का प्रयोग होता है उसे कलाबत्तू कहा जाता है |
राजस्थान की प्रसिद्ध ओढनियां
- ज्वारभांत की ओढनी – ज्वार जैसे छोटी-छोटी बिंदी वाली जमीन और बेल-बूटे वाला पल्लू होता है | इसकी जमीन सफेद तथा बूटियां लाल-काले रंग की होती है |
- ताराभांत की ओढनी – आदिवासी महिलाओं में विशेष लोकप्रिय इसकी जमीन भूरी रंगत लिए लाल होती है एवं किनारी का छोर काला षडकोणीय आकृति तारों जैसी दिखती है |
- लहरभांत की ओढनी – ज्वारभांत जैसी बिंदियाँ से लहरिया बना होता है किनारा एवं पल्लू ज्वारभांत जैसे ही होता है |
- केरीभांत की ओढनी – इसके किनारे व पल्लू में केरी एवं जमीन में ज्वार भांत जैसी बिंदियाँ सफेद व पीले रंग की होती है |
- चुनड – उदयपुर के निकट आहड़ में भीलों की चुनड छपती है | लाल कत्थई रंग की जमीन पर सफेद बिंदियाँ होती है तथा विभिन्न संयोजन में होती है | हरे गुलाबी व पीले कच्चे रंग के पक्षी भी छापे जाते है |
राजस्थान की रंगाई-छपाई में बन्धेज का विशिष्ट ध्यान रखा जाता है | इसके अंतर्गत कपड़े को मोड़कर धागे से उसे कसकर बाँध वांछित हिस्से को रंगा जाता है | यह मुख्य रूप से चार प्रकार से किया जाता है –लिकाई, बंधाई, तिपाई एवं रंगाई इत्यादि |
बंधेज में कपड़े को बांधकर अलंकरण किया जाता है जब वह बूंदों के रूप में होता है तो चुनरी कपड़े के एक शिरे से दुसरे सिरे तक धारियां बनती है उसे लहरियां तथा धारियां आपस में एक दुसरे को काटते हुए हो तो मोठडा तथा बड़ी बुँदे बनती है तो उसे धनक कहते है |
कपड़े पर बंधा धागा खोला जाता है तो अलंकरण उभरकर सामने आ जाता है तो उसे टाई या डाई (बंधेज) कहा जाता है |
दरी व कालीन
- राजस्थान में सर्वाधिक दरी एवं गलीचे का कार्य जयपुर व अजमेर के क्षेत्रों में होता है |
- बीकानेर में उत्तम श्रेणी के ऊन से सियना तथा फ़ारसी डिजाइनों से गलीचे बनाये जाते है |
- गलीचे बनाने के कुछ कारखाने जयपुर में है | इसके अतिरिक्त गलीचे जोधपुर, जालौर, जैसलमेर, नागौर, बाड़मेर आदि जिलो में भी बनाये जाते है |
कठपुतलियाँ एवं खिलौने
- राजस्थान में काठ से बनी कलात्मक चित्रांकन से युक्त कठपुतलियाँ यहाँ की परम्परागत हस्तशिल्प की एक अनूठी सौगात है | कठपुतली बनाने का कार्य उदयपुर के किया जाता है |
- गणगौर बनाने का कार्य चित्तौड के बस्सी में, खिलौने नागौर के मेड़ता में, पशु-पक्षी के सेट जयपुर में बनाये जाते है |
- हाथी-घोड़े, ऊंट आदि गोटे की कारीगरी से बनाये जाते है जो बच्चो में अति लोकप्रिय है |
- गलियाकोट का रमकड़ा उद्योग जिसमे सोपस्टोन को तराशकर खिलौने बनाये जाते है जो काफी प्रसिद्ध है |
लकड़ी और नक्काशी का काम
- लकड़ी के कलात्मक खिलौने, विभिन्न वस्तुएं और नक्काशी का कार्य उदयपुर, बीकानेर, सवाई माधोपुर व शेखावाटी स्थानों पर किया जाता है |
- यहाँ लकड़ी में पीतल की जड़ाई का काम बहुत कम होता है |
- बीकानेर व शेखावाटी में लकड़ी के नक्काशीदार सजावटी किवाड़ बनते है |
- काष्ठ-कला – काष्ठ पर कलात्मक शिल्प बनाने में जेठाना (डूंगरपुर) प्रसिद्ध है |
- प्राचीन एवं मध्यकालीन काष्ठ शिल्प की अनुकृतियां के लिए जालौर प्रसिद्ध है |
- चित्तौडगढ़ जिले का बस्सी गाँव काष्ठ कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है |
- मेवाड़ का बस्सी गाँव कलात्मक काष्ठ रूप मेंनिम्न है –
कठपुतली – इनका जन्मस्थली राजस्थान है | इसको नचाने वाले नट या भाट के लोग होते है | मारवाड़ इन नाटों का मुख्य स्थल है | कठपुतली बनाने का काम आमतौर पर उदयपुर, चित्तौडगढ़ व कठपुतली नगर (जयपुर) में होता है | स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में लोककला मण्डल उदयपुर ने कठपुतली कला का विस्तार तथा इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है |
कठपुतली खेलों में सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज संयोगिता व नागौर के अमरसिंह राठौड़ का खेल सर्वाधिक लोकप्रिय है |
तोरण – विवाह के अवसर पर दुल्हन के मुख्य घर प्रवेश द्वार पर लकड़ी की कलाकृति जिसके शीर्ष पर मयूर या सुग्गा बना होता है जिसे दूल्हा-दुल्हन के घर में प्रवेश करने से पूर्व हरी डाली, खांडे या गोटा लगी डंडी से स्पर्श करता है | कही-कही तोरण के स्थानपर मोवण का भी प्रचलन है जो मुख्य द्वार पर या द्वार के बाहर गाड़े जाते है |
कावड- कावड विविध कपाटों में खुलने व बन्ध होने वाली मंदिर नुमा काष्ठ कलाकृति है जिस पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक व पौराणिक कथाओं से संबंधित देवी-देवताओं के मुख्य-मुख्य प्रसंग चित्रित होते है | यह चलता फिरता देवघर है | कावड़िया भाट इसका वाचन करता है |
कावड बनाने का कार्य बस्सी गाँव के खेरादी जाति के लोग करते है |
काष्ठ की अन्य कलाकृतियाँ
चोपड़े – विवाह व अन्य मांगलिक अवसरों पर कुमकुम अक्षत चावल आदि रखने हेतु प्रयुक्त लकड़ी का पात्र |
बाजोट – भोजन, पूजा के थाल आदि के नीचे रखी जाने वाली चौकी |
बेवाण – लकड़ी के बने देव विमान, जिनकी देव झुलनी एकादशी को झांकी निकाली जाती है |
छापे – कपड़े पर हाथ से छपाई करने में प्रयुक्त लकड़ी के छापे खेराती जाति के लोग बनाते है |
खांडे –
होली के अवसर पर बनाये जाने वाले लकड़ी के तलवारनुमा खंडे |
पातरे-तिपरणी –
श्वेताम्बर जैन साधू-संतों के प्रयोग में आने वाली लकड़ी के पात्र जोधपुर के पीपाड़ कस्बे में विशेष रूप से बनाये जाते है |
साँझी –
यह राजस्थानी कन्याओं का कलापूर्ण व्रतोत्सव है जो आश्विन की प्रतिपदा से लेकर पितृपक्ष के पुरे पन्द्रह दिनों तक मनाया जाता है | इस दौरान कन्याएं विविध प्रकार की लोकरंजित सान्झियाँ बनाती है |
नाथद्वार के श्रीनाथ के मंदिर के केले की संध्या देशभर में प्रसिद्ध है | सान्झियाँ के कारण ही उदयपुर का महेन्द्रनाथ मंदिर का नाम संध्या नाथ हो गया है |
मेहंदी महावर –
मेहन्दी या महावर रचाना परम्परा से चली आ रही मांगलिक लोक कला है | राजस्थान में इसे सुहाग व सौभाग्य का शुभ चिन्ह माना जाता है | राजस्थान में सोजत (पाली) की मेहन्दी प्रसिद्ध है |
थापा-
हाथ की अंगुलियाँ के ठप्पे देकर दीवार पर जो निशान चित्रांकन किये जाते है उन्हें कहते है |
पाने-
देवी-देवताओं के कागज पर बने चित्र पाने कहलाते है | विभिन्न त्योहारों का इनका पूजन किया जाता है |
गोदना-
यह अंग चित्रांकन की विशिष्टता कला है | अंगो में सुई अथवा बबूल के कांटे से आकृति बनाने के बाद उस पर कोयला और खेजडे के पत्तो का काला पाउडर दाल दिया जाता है | यह अंग में एक स्थाई हर निशान बना डेटा है | इसे गुदना यह गोदना कहते है | गोदना राजस्थान की पिछड़ी जातियों में महिलाओं एवं पुरुषों में प्रचलित विशिष्ट लोक श्रृंगार है |
मांदणा-
मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर-आँगन को लीपपोत कर खडिया, हिरमिच व गैय से अनामिका की सहायता से ज्यामिति अंलकरण बनाये जाते है जिन्हें राजस्थान गुजरात में सातियाँ, महाराष्ट्र में रंगोली, बंगाल में अल्पना, उत्तर प्रदेश में चौक पुरना या सोंन, भोजपुरी अंचल में थापा, तेलगु में मोगू, केरल में अत्तापू, तमिल में कोलम, बिहार में अहपन व ब्रज और बुंदेलखंड में सांझा कहलाते है |
कुछ विशेष मांडने निम्न है – पगल्या, साट्या, ताम, चौकड़ी, मांडना |
पाटरी कला
- जयपुर में चीनी-मिट्टी के सफेद व नीले रंग कए तथा फुल-पत्तियों के डिजाईनदार बर्तन व कलात्मक खिलौने बनाये जाते है |
- अलवर की डबल कट वर्क की पाटरी को कागजी नाम से जानते है |
- कोटा की ब्लैक पाटरी फूलदानो, प्लेटों और मटकों के लिए प्रसिद्ध है |
- चीनी मिट्टी के बर्तनो पर रंगीन और आकर्षक चित्रकारी को ब्ल्यू पाटरी कहते है |
- नीले रंग का इसमें विशेष महत्व है व इसका जन्म ईरान में होना माना जाता है |
- जयपुर की ब्लू पाटरी प्रसिद्ध है जिसका प्रारम्भ मानसिंह प्रथम ने किया लेकिन सर्वाधिक विकास सवाई रामसिंह के समय हुआ था | वर्तमान में पद्मश्री कृपाल सिंह ने इस कला के प्रमुख प्रणेता है |
- महाराजा रामसिंह के कला में इसका सर्वाधिक विकास हुआ था |
- वर्तमान में ब्लू पाटरी के कृपाल सिंह शेखावत अंर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार है |
लोक चित्रांकन
- राजस्थानी हस्तकला के अंतर्गत लोक शैली में कपड़ों अथवा दीवारों के अलंकरण के लिए प्रयुक्त की जाने वाली फड अथवा बातिक शैली चित्रांकन कृतियों की अपनी पहचान रही है |
- चित्रों के माध्यम से जो कथा राजस्थान में कही जाती है तो उसे फड या पड़ कहा जाता है |
- कपड़े के कैनवास पर फड का चित्रण किया जाता है एवं इसे बांचने वाले समुदाय को भोपा कहते है इसे भोपा युगल मिलकर गाते है |
पिछवाई चित्र भी हस्तशिल्प के अंतर्गत बनाये जा रहे है | इसमें कृष्ण लीला से संबंधित चित्र कृष्ण की प्रतिमा के पीछे दीवारों पर लगाये जाने के कारण पिछवाई चित्र कहलाते है |
भराडी – आदिवासी भीलों द्वारा लड़की के विवाह पर घर की दिवार पर बनाये जाने वाली लोक देवी का चित्र | कपड़े की मोम की परत चढ़ा कर बनाये जाते है इसे बातिक शैली कहा जाता है |
मथैरण कला – इसके द्वारा बीकानेर में धार्मिक स्थलों एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित विभिन्न देवी-देवताओं के भित्त चित्र तथा गणगौर, ईसर, तौरण आदि बनाने व रंगने का कार्य किया जात है |
टेरा-कोटा- इस कला से मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई जाती है तथा मालेला गाँव इसके लिए प्रसिद्ध है |
बू-नरावता गाँव की मिट्टी के खिलौने, गुलदस्ते, गमले, पक्षियों की कलाकृतियाँ के काम के लिए प्रसिद्ध है जो नागौर जिले में है |
उस्त कला – ऊंट की खाल पर स्वर्णिम नक्काशी का कार्य, जो बीकानेर में होता है, इसे विश्वविख्यात बना दिया है | स्वर्गीय हिस्समुद्दीन इस कला के प्रमुख कलाकार थे |
गोरबन्ध – ऊंट के गले का आभूषण जो कांच, कौड़ियों, मोतियों व मणियों को गुंथकर बनाया जाता है | इसके संबंध में गोरबन्ध नखरालो लोकगीत गाया जाता है |
बुनाई उद्योग
- सूत और सिल्क के ताने-बाने के लिए राज्य में कैथून, मसुरियां के लिए मांगरोल, मलमल के लिए तनसुख और मथानियाँ ऊन के लिए बीकनेर और जैसलमेर तथा लोई के लिए नापासर प्रसिद्ध है |
- राजस्थान में हस्तशिल्प विकास हेतु राजस्थान लघु उद्योग निगम प्रयासरत है |
- राजस्थान में लघु उद्योग विकास निगम ने विभिन्न शिल्प कलाओं से संबंधित प्रक्षिक्षण कार्यक्रम चला रखा है |
- राजसिको द्वारा गलीचा प्रशिक्षण केन्द्र अनुसूचित जनजाति विकास निगम द्वारा वित्त-पोषित है तथा जोधपुर, रतनगढ़, नवलगढ़ आदि में चल रहे है |
- कमाण्ड योजना के अंतर्गत राजसिको में मोहनगढ़, लूणकरणसर और बीकानेर में कार्यरत है |
- राजसिको द्वारा आदिवासी हस्तशिल्प प्रशिक्षण केन्द्र उमरगाँव (बूंदी), सीसारमा (उदयपुर) में,फर्नीचर का कार्य बस्सी (चित्तौडगढ़) में तथा धारियां (उदयपुर) में दरी बुनाई हेतु स्थापित है |
- हस्तशिल्प व्यवसाय को बढाने हेतु उदयपुर शिल्प ग्राम और पाल शिल्पग्राम (जोधपुर) भी प्रयासरत है |
- वर्ष 1983 में भारत द्वारा स्थापित राष्ट्रीय उद्यम विकास बोर्ड तथा राष्ट्रीय शिल्प एवं लघु व्यापार विकास संस्थान, लघु उद्योगों से संबंधित नीति निर्धारण का कार्य करता है |
- लघु उद्योग विकास निगम को प्रबन्धकीय एवं तकनीकी तथा आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाता है |
- संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम व खाड़ी ग्रामोद्योग आयोगके संयुक्त प्रयासों से सांगानेर (जयपुर) में हस्तशिल्प कागज राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की गई है |
- जयपुर की 250 ग्राम रुई की बनी रजाई विश्व प्रसिद्ध है |
- राज्य से मूल्य की दृष्टि से सर्वाधिक निर्यात आभूषण व जवाहरात का होता है | यहाँ से पन्ना, रत्न, सोने व प्लेटिनम के आभूषण, चांदी के आभूषण एवं कृत्रिम रत्न निर्यात किये जाते है |
- राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले में काँच पर सोने की मीनाकारी को थेबा कला कहा जाता है |