विकास (Evolution) :–
- कम विकसित जीवो से अधिक विकसित जीवों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया, विकास कहलाती है।
- यह बहुत धीमी गति से होने वाली प्रक्रिया है।
- यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
ब्रह्माण्ड व पृथ्वी की उत्पत्ति
- ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति लगभग 20 हजार करोड (200 बिलियन) वर्ष पहले हुई थी। पृथ्वी की प्रारम्भिक अवस्था में इसमे वायुमण्डल नही था |
- पृथ्वी जैसे- जैसे ठण्डी होती गई इसमे जल, जल वाष्प, मीथेन कार्बन डाई आक्साइड एवं अमोनिया का निर्माण हुआ।
- सूर्य की पराबैगनी किरणों ने पानी को तोड़कर H2 व O2 को अलग कर दिया । O2 ने NH3 व CH4 के साथ मिलकर H2O, CO2 तथा दूसरी गैसे बनायी।
- इसी प्रकार धीरे- धीरे पृथ्वी के चारों ओर ओजोन परत तथा अन्य गैसो का निर्माण हुआ ।
- पृथ्वी के और ठण्डा होने पर जलवाष्प ने बरसात का रूप ले लिया। जिसने गहरे जगह को महासागर का रूप दिया।
- यह माना जाता है कि पृथ्वी के उत्पत्ति के लगभग 50 करोड साल बाद पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई।
जीवन की उत्पत्ति (Origin of Life)
पृथ्वी पर जीवन आज से लगभग 400 करोड वर्ष पहले प्रारम्भ हुआ, जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई इस परनिम्नलिखित सिद्धान्त है।
(i) स्पोर सिद्धांत या पैनस्पर्मिया:– कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अनेक ग्रहो से ब्रह्माण्ड में स्पोर नामक कॉस्मिक कण आये और पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई।
(ii) स्वतः जनन सिद्धान्त:- इसके अनुसार कुछ कपडे, रोटी के टुकड़े से चूहे जैसे जानवर स्वतः उत्पन्न हो जाते है। मीठा या तरल खाद्य पदार्थ डालने से मक्खियाँ स्वतः उत्पन्न हो जाती है। परन्तु यह सम्भव नहीं है।
लुई पाश्चर ने स्वतः जनन सिद्धांत को गलत साबित करते हुए जीवन जीव उत्पत्ति अर्थात पूर्व में निर्मित जीव से ही नये जीवो की उत्पत्ति होती है का सिद्धांत प्रतिपादित किया और प्रयोग से सिद्ध किया।
इन्होंने दो फ्लास्क लिये जिनमे मृत यीस्ट रखा, एक फ्लास्क को खुला ही रहने दिया जबकि दूसरे फ्लास्क की गर्दन को गर्म कर ‘S’ आकार दिया और इसे जीवाणु रहित करके आगे से बन्द कर दिया उसने अपने प्रयोग से पाया कि जिस फ्लास्क को खुला छोड़ा था उसमे रखे मृत यीस्ट में नये जीव उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि उसे जीवाणु रहित नहीं किया गया था जबकि दूसरे फ्लास्क मे जीव उत्पन्न नहीं होते हैं।
(iii) आपेरिन – हालडेन सिद्धांत :-
इस सिद्धांत को रूस के वैज्ञानिक ए० आइ० आपेरिन और इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक जे. बी. एस. हालडेन ने प्रतिपादित किया ।
इनके अनुसार महासागर मे जीवन का प्रारम्भ हुआ। उस समय पृथ्वी का तापमान ज्यादा था लेकिन वायुमण्डल मे CH4, NH3 जैसी गैसे कम और ज्वालामुखी ज्यादा थे । इस समय वातावरण में न के बराबर .इसलिए जीव भी अवायवीय थे।
(iv) मिलर का सिद्धांत :-
इस सिद्धांत को एस० एल० मिलर ने 1953 ई० मे अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया |
इन्होने एक फ्लास्क मे मीथेन, अमोनिया व हाइड्रोजन को रखा और उबलते हुई पानी के भाप के साथ ही 800°C पर दो टंगस्टन के इलेक्ट्रोड से स्पार्किंग कराया। इलेक्ट्रोड को इन्होंने ऊर्जा के स्रोत के रूप में लिया।
प्रयोग के 18 दिन बाद फ्लास्क मे जो द्रव पाया गया उसका विश्लेषण करने पर उसमे ग्लाइसीन, इलेनाइन व एस्पाटिक अम्ल जैसे सरल अमीनो अम्ल पाये गये और इसके अलावा फार्मिक अम्ल, एसीटिक अम्ल, आक्सेलिक अम्ल आदि कार्बनिक अम्ल पाये गये और साथ ही शर्कराएँ, नाइट्रोजन क्षार व वर्णक भी पाये गये।
इस प्रयोग मे यह माना गया कि ब्रह्माण्ड मे कही न कही ऐसी अभिक्रिया हुई जिससे अकार्बनिक से कार्बनिक यौगिकों का निर्माण हुआ और कार्बनिक अणुओं से जीवन का प्रारम्भ हुआ।
जैव विकास के प्रमाण
पृथ्वी पर जीवो के जन्म व उनके विकास को ही जैव-विकास कहते हैं। वर्तमान में यह सिद्ध किया जा चुका है कि सभी जीवो का विकास दूसरे जीवो मे विभिन्नताओं के कारण जैव-विकास से हुआ है। इस प्रक्रिया का अध्ययन विभिन्न प्रमाणों की सहायता से किया जाता है।
- तुलनात्मक आकारीक व शरीर रचना के प्रमाण
- जीवाश्म : विज्ञान के प्रमाण
- अवशेषी- ‘अंगों के प्रमाण
- संयोजक कडियो के प्रमाण
- तुलनात्मक भौगिकी से प्रभाव
- जंतुओ के भौगोलिक वितरण के प्रमाण
(1) तुलनात्मक आकारिकी व शरीर रचना के प्रमाण
जन्तुओ मे शारीरिक संरचनाए दो प्रकार की होती है-
(i) समजात अंग- जन्तुओ के ऐसे अंग जिनकी संरचना समान होती है किन्तु उनके कार्य अलग-अलग होते है, उसे समजात अंग कहते है।
उदाहरण:- मनुष्य के हाथ, चमगादड के पंख और घोडे की अगली टाँग की रचना समान होती है किन्तु इनके कार्य अलग- अलग होते हैं।
(ii) समवृत्ति अंग – जन्तुओ के ऐसे अंग जिनके कार्य समान होते है परन्तु उनकी आन्तरिक संरचनाएँ भिन्न होती है. उसे समवृत्ति अंग कहते है।
उदाहरण:- कीटो, पक्षियो, चमगादड़ के पंख उड़ने का कार्य करते हैं किन्तु इनकी रचना अलग-अलग होती है।
(2) जीवाश्म ईंधन के प्रमाण
प्राचीन जीवों के अवशेष हमें चट्टानो के नीचे दबे मिलते है जिसे जीवाश्म कहते है। इसके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान कहते हैं। जीवाश्म जैव- विकास के लिए महत्त्वपूर्ण प्रमाण प्रदान करते है |
जैसे- आर्कियोप्टेरिक्स, डायनासोर, आदिमानव आदि के जीवाश्म जैव-विकास के लिए अच्छा प्रमाण है।
(3) अवशेषी अंगों के प्रमाण
ऐसे अंग जो पहले कार्य किया करते थे परन्तु अब केवल अवशेष के रुप मे रह गये हो, अवशेषी अंग कहलाते है।
अवशेषी अंगों का जैव विकास में महत्त्वपूर्ण प्रमाण है
जिनमें से कुछ मुख्य है –
(a) कृमिरुपी परिशेषिका – यह शाकाहारी जीवो में होती है, इसके द्वारा सेलूलोज का पाचन होता है परन्तु मनुष्य के पूर्वज शाकाहारी प्राणी थे लेकिन सेलूलोज की कमी होने के कारण यह एक अवशेषी अंग के रूप मे रह गया है।
(b) निशेषक पटल –यह मनुष्य के नेत्र के भीतर पाई जाती है लेकिन यह मानव के लिए अनुपयोगी परन्तु मेढक, पक्षी आदि के लिए उपयोगी है।
(c) अक्ल दांत – यह मनुष्य मे तृतीय मोलर् दन्त की उपस्थिति होते हैं।
(ii) कीवी और शुतुरमुर्ग ऐसे पक्षी है जिनके पंख तो होते हैं परन्तु उनमे उड़ने की क्षमता नहीं होती।
(4) संयोजक कडियो के प्रमाण
ऐसे जीव जिसमे दो वर्गो या दो जातियों के लक्षण पाये जाते है अर्थात् दोनो वर्गो की बीच की कड़ी, संयोजक कड़ी कहलाती है।
जैसे-
(i) विषाणु:- विषाणु सजीव एवं निर्जीव के बीच की संयोजक कडी है। –
(ii) युग्लीना:- यह जन्तु और पौधो के बीच की संयोजक कडी है।
(iii) पैरीपेट्स:- यह ऐनेलिडा तथा आथ्रोपोडा के विकास को प्रमाणित करता हैं इसलिए इसे ऐनेलिडा तथा आर्थोपोडा बीच की संयोजक कड़ी कहते है ।
(iv) नियोपिलिन:– यह ऐनेलिडा व के मध्य की संयोजक कड़ी है।
(v) आर्किओप्टेरिक्स:- यह पक्षी तथा सरीसृप के बीच की संयोजक कड़ी है।
(vi) एकिडना- इसे सरीसृपो तथा स्तनीयो के बीच की कड़ी है।
(5) तुलनात्मक भ्रोणिकी से प्रभाव
अलग-अलग जीवों में भिन्न-भिन्न प्रकार के भ्रूणों का निर्माण होता है। कुछ जातियों मे भ्रूण को पहचानना मुश्किल हो जाता है क्योंकि इसमे अत्याधिक समानताएँ पाई जाती है। इनका विकास होने पर ही इनको पहचाना जा सकता है। जैसे महली, सुअर, कछुएँ, मुर्गे व मनुष्य के भ्रूण लगभग एक समान दिखाई देते हैं। इसी के आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य का विकास मछली जैसे किसी प्राणी से हुआ है।
वॉन बेयर ने इसी आधार पर बायोजेनेटिक नियम का प्रतिपादन किया।
बायोजेनेटिक नियम
इस नियम के अनुसार भ्रूण मे पहले सामान्य लक्षण व बाद मे विशेष लक्षण दिखाई देते हैं। इस नियम को बेयर का नियम कहा जाता है । सन् 1866 मे अर्नेस्ट हेकल द्वारा इस नियम को बायोजेनेटिक कहा गया। इसमे जन्तु अपने पूर्वज के भ्रूणीय लक्षणो की जगह वयस्क लक्षणो को दोहराते हैं। इसलिए इसे पुनरावृत्ति सिद्धान्त भी कहा जाता है।
(6) भौगोलिक वितरण के प्रमाण
- यह जैव विकास को प्रमाणित करता है।
- शेर और हाथी केवल भारत व अफ्रीका मे पाये जाते हैं।
- जेबरा, जिराफ व दरियाई घोडा केवल अफ्रीका में पाये जाते है।
- कुछ शुतुरमुर्ग अफ्रीका मे तथा कुछ अरब मे भी पाये जाते हैं।
- डार्विन ने अमेरिका के 14 द्वीपो मे गैलेंपेगास द्वीप की चिडियाओ का अध्ययन किया । उन्होने चोच मे मौलिक अन्तर पाया । जो अलग वातावरण व परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हुआ है। इन चिडियो को डार्विन की फिंचे कहते हैं।
प्राकृतिक वरण या योग्यतम की उत्तरजीविता
जो जीव वातावरण के अनुकूल रहने मे योग्य होते हैं वही जीव पृथ्वी पर जीवित रहते है तथा जो जीव वातावरण के प्रतिकूल रहते हैं वे धीरे-धीरे पृथ्वी से नष्ट हो जाते हैं।
डार्विन ने इस प्रक्रिया को प्राकृतिक वरण कहा, जबकि हरबर्ट स्पेन्सर ने इसे योग्यतम की उत्तरजीविता नाम दिया।
उदाहरण – रेगिस्तानी जिराफ
प्राकृतिक वरण के पक्ष मे उदाहरण- प्राकृतिक वरण एक ऐसी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके कारण जीवो के गुणों का चयन होता है, जिससे वे प्रकृति मे अनुकूलित हो पाते हैं। इसके निम्न उदाहरण है. –
डेवनपोर्ट का प्रयोग – इस प्रयोग मे डेवन पोर्ट ने सफेद, काले व झब्बेदार चूजो पर प्राकृतिक वरण का प्रयोग किया और उन्होंने पाया कि काले व सफेद चूजे अपने आप को जमीन में नहीं दिपा पा रहे है, जिससे वे पक्षी शिकारी का शिकार बन जाते हैं तथा उनकी संख्या कम हो जाती है परन्तु धब्बेदार चूजे जमीन में छिप जाते हैं, इसलिए वे शिकारी से बचे रहते हैं और उनकी संख्या बढ़ जाती है अर्थात प्रकृति धब्बेदार चूजो का वरण करती है।
अनुकूली विकिरण क्या है ?
जब एक ही पूर्वज से विभिन्न जातियों का विकास होता है तो इसे अनुकूली विकिरण कहते हैं। इसमें एक ही जाति से विभिन्न जाति का विकास होता है। इसलिए इसे अपसारी जैव-विकास भी कहते हैं।
उदाहरण – डार्विन की फिंचे।
जैव विकास (Evolution)
जैव-विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो छोटे जीव होते हैं उनमे विकास की दर ज्यादा तेज होती है जबकि यह दर बडे जीवो मे बहुत धीमी होती है। जैव विकास होने मे हजारो वर्ष का समय लगता है।
जैव विकास के सिद्धांत
- लैमार्कवाद
- डार्विनवाद
- उत्परिवर्तनवाद
लैमार्कवाद :-
लैमार्कवाद फ्रांसीसी प्रकृति वैज्ञानिक जे. बी. लैमार्क ने सर्वप्रथम 1809 ई. मे जैव विकास के अपने विचारो को अपनी पुस्तक मे प्रकाशित किया। इसे लैमार्कवाद या उपार्जित लक्षणों का वंशागति सिद्धान्त कहते है।
लैमार्कवाद के मुख्य बिन्दु :-
- लैमार्क के अनुसार जीवों की संरचना, कायिकी, उनके व्यवहार पर वातावरण के परिवर्तन का सीधा प्रभाव पडता है।
- परिवर्तित वातावरण के कारण जीवो के अंगो का उपयोग ज्यादा अथवा कम होता है जिन अंगो का उपयोग अधिक होता है, वे अधिक विकसित हो जाते है तथा जिनका उपयोग नही होता है, उनका धीरे- धीरे ह्यास हो जाता है।
- वातावरण के सीधे प्रभाव से या अंगो के कम या अधिक उपयोग के कारण जन्तु के शरीर में जो परिवर्तन होते हैं, उन्हें उपार्जित लक्षण कहते है। जन्तुओं के उपार्जित लक्षण वंशागत होते है। ऐसा लगातार होने से कुछ पीढ़ियो के पश्चात उनकी शारीरिक रचना बदल जाती है तथा एक नए प्रजाति का विकास हो जाता है ।
उदाहरण :–
जिराफ की लम्बी गर्दन तथा अग्रपाद:- जिराफ पेडो की फुनगियो की पत्तियों को चरने के लिए अपने गर्दन की लम्बाई बढाकर अनुकूलन किया |
साँपो मे पैरो का विलुप्त हो जाना ।
लैमार्कवाद का खंडन
लैमार्कवाद का बाद मे कई वैज्ञानिकों ने खण्डन किया | उन वैज्ञानिकों के अनुसार उपार्जित लक्षण वंशागत नहीं होते। इसकी पुष्टि के लिए जर्मन वैज्ञानिक बीजमेन ने 21 पीढियो तक चूहे की पूंछ काटकर यह प्रदर्शित किया कि कटे पूछ वाले चूहे के सन्तानों में पूंछ पाई जाती है।
डार्विनवाद
जैव विकास पर दिया गया दूसरा सिद्धान्त डार्विनवाद कहलाता इसके मुख्य बिन्दु है।
(i) अतिजनन :- अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए प्रत्येक जाति सन्तान की उत्पत्ति करती है, जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी उनका अस्तित्व बना रहे।
पर्ल आयस्टर की एक मादा एक बार मे 10 लाख अण्डे देती है।
(ii) अस्तित्व के लिए संघर्ष:- प्रत्येक प्राणी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। यह संघर्ष भोजन , आवास, साथी, जनन आदि के लिये होता है।
- (a) अन्त: जातीय संघर्ष– इसमे एक जाति के ही सदस्यों के बीच जीवन संघर्ष होता है क्योंकि सभी की जरूरते जैसे- पोषण, जनन, आवास समान होती है।
- (b) अन्तरजातीय संघर्ष- जैव समुदाय मे अनेक जातियों के जीव पाये जाते हैं। पोषण के लिए एक -दूसरे पर है निर्भर करते हैं।
- (c) वातावरणीय संघर्ष – यह संघर्ष सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो जीवो को प्रभावित करता है। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वातावरणीय कारक जीवो को प्रभावित करते हैं। जैसे ताप, वर्षा, प्रकाश आदि । जो इसके अनुकूल रहता है वो जीवित रहता है और जो अनुकूल नही होते वे नष्ट होने लगते है।
(iii) प्राकृतिक विभिन्नताएँ :- एक ही जाति के दो जीव कभी समान नहीं हो सकते। यहाँ तक की माता-पिता के सभी सन्ताने अलग- अलग होती है। इनमें पाई जाने वाली विभिन्नताओ को ही डार्विन विचलिन विभिन्नताएँ कहा | विभिन्नताएँ जैव- विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। इसके बिना जैव विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
(iv) प्राकृतिक वरण या योग्यतम की उत्तरजीविता :- प्रकृति विभिन्नताओं का चयन करती है जाति का अस्तित्व प्रकृति के इस चयन पर निर्भर करती है। वे जातियाँ जिनका चयन प्रकृति करती है विकसित होती है तथा प्रकृति जिनका चयन नहीं करती वो धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है। डार्विन ने इस प्रक्रिया को प्राकृतिक वरण कहा जबकि हरबर्ट स्पेन्सर ने इसे योग्यतम की उत्तरजीविता कहा |
(v) नई जातियों की उत्पत्ति :- जो जीव योग्य होते हैं उनमें उपयोगी विभिन्नताएँ वंशागत होती रहती है।
हजारो वर्ष बाद भी ये विभिन्नताएँ एक साथ मिलकर एक नई जाति का विकास करती है और ये चक्र लगातार चलता रहता है।
विकास की क्रियाविधि
डार्विन ने विकास की क्रियाविधि का आधार विभिन्नताओं को माना था लेकिन यह खुद नहीं बता पाए कि ये विभिन्नताएँ आती कहाँ से है।
इसके बाद ह्यूगो डी ब्रीज ने इवनिंग प्राइमेज पर काम करके उत्परिवर्तन सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार आनुवांशिक पदार्थ मे आये बदलाव के कारण जीव लक्षण प्रारूप में ही बडे परिवर्तन होते हैं, उसे उत्परिवर्तन कहते है तथा ये सिद्धान्त उत्परिवर्तन कहलाता है। इनके अनुसार उत्परिवर्तन विकास से ही होता है।
डार्विन की विभिन्नता व ह्यूगो डी ब्रीज के उत्परिवर्तन में अंतर
विभिन्नता | उत्परिवर्तन |
जीव के लक्षण प्रारूप मे जो छोटे परिवर्तन होते हैं और जो आनुंवाशिक होते है उसे विभिन्नता कहते हैं। | जीव के आनुवाशिक पदार्थ मे और लक्षण प्रारूप मे जो बडे परिवर्तन होते हैं, उत्परिवर्तन कहते हैं। |
विभिन्नता एक निश्चित दिशा में होता है। | उत्परिवर्तन दिशाहीन होते है। |
इसमे विकास क्रमबद्ध होता है । | इसमे विकास अचानक व बड़ा होता है। |
इनमें विकास धीरे-धीरे होता है। | इनमें विकास तेजी से होता है। |
हार्डी – विनबर्ग का सिद्धांत
- इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक हार्डी तथा जर्मन वैज्ञानिक विनबर्ग से स्पष्ट किया गया कि जीन की आवृत्तियां पीढ़ी-दर-पीढी समान रहती है।
- इसमें किसी प्रकार की आनुवांशिकी परिवर्तन नहीं होते है।
- इसमे किसी भी प्रकार से जीन उत्परिवर्तन नहीं होते हैं।
- प्राकृतिक वरण नही पाया जाता है।
- हार्डी- विनबर्ग ने एक गणितीय समीकरण की सहायता से समझाया जिसे हार्डी विनबर्ग का सद्धांत कहा जाता है ।
[p2 +pq +q2 =1]
यही हार्डी – विनबर्ग नियम का समीकरण है।
संस्थापक प्रभाव
. जब लोगो का एक छोटा समूह जिसे संस्थापक समूह कहते है अपने प्राचीन स्थान को छोड़कर अपने नये स्थान पर जाता है तो उस नये स्थल की आबादी मे भिन्नता हो सकती है उसकी आबादी मे नये जीन की उत्पत्ति को संस्थापक प्रभाव कहते है। उदाहरण – दूर स्थित द्वीपों पर नई जाति का विकास |
मानव का उद्भव और विकास
मानव का विकास लगभग 15 मिलियन साल पहले कपि वंश से हुआ था ।
आज कपि वंश के अस्तित्व मे गोरिल्ला, चम्पैंजी, गिब्बन व ओरन्गुटान है।
ड्रोयोपिथिकस
ये कवि के पूर्वज थे। उत्तरी अफ्रीका, तंजानिया, एशिया और यूरोप के मध्य मे मायोसीन और प्रारम्भिक प्लायोसीन काल की चट्टानो मे इनके अवशेष मिलते है।
लक्षण–
- ये चिम्पैंजी व कपि से मिलते-जुलते थे ।
- ये चिम्पैंजी व गोरिल्ला की तरह चलते थे ।
- शरीर पर घने रोये थे।
- ड्रोयोपिथिकस के बाद मानव वंश का शुरुआत हुआ।
रामापिथिकस
ये एक उपमानव थे। भारत के शिवालिक पहाडियो मे 1955 में इनके जीवाश्म पाये गए थे ये लगभग 1.3 करोड़ साल पहले पृथ्वी पर पाये जाते थे।
लक्षण-
- ये मनुष्य के समान दिखते थे।
- इनके दाँतों व जबड़े की रचना मनुष्य के समान था ।
- इनके शरीर मे घने रोम थे।
- इनकी लम्बाई 4 फिट से कम थी।
होमो हेबिलिस
- प्रथम मानव समान पूर्वज
- प्रथम मानव जिसने शिकार करने के लिए पत्थरों के औजार बनाना प्रारम्भ किया, इसलिए इसे प्रथम tool maker man कहते हैं। ये माँस नही खाते थे।
- इनकी कपाल क्षमता 650 से 800 CC के मध्य थी।
- इनके जीवाश्म Dr. Leakey द्वारा अफ्रीका में 2 मिलियन वर्ष पुरानी चट्ट्टानो से प्राप्त किये गये।
- ये गुफाओ मे रहते थे।
होमो इरेक्ट्स
- ये 1.5 मिलियन वर्ष पूर्व विद्यमान थे।
- इनका मस्तिष्क बडा 900cc कपाल क्षमता युक्त था।
- ये गुफाओ मे रहते थे और संभवतः माँस आते थे ।
होमो सेपियन्स निएटुरथेलें सिस
- ये 100000 से 400000 वर्ष पूर्व, पूर्वी व मध्य एशियाई देशों में रहते थे तथा इनके जीवाश्म जर्मनी की निएण्डरथल घाटी मे प्राप्त किये गए ।
- इनके मस्तिष्क का आकार 1400 CC (आधुनिक मानव के समान) था ।
- ये अपने शरीर की रक्षा के लिये जानवरो की खाल का प्रयोग करते थे।
- ये अपने मृतको को जमीन मे गाड़ते थे और सम्भवतः आत्मा की अमरता मे विश्वास करते थे।
- ये झोपडियो मे रहते तथा स्वभाव मे सर्वाहारी थे।
आधुनिक मानव
- 75000 से 100000 वर्ष पूर्व हिमयुग के दौरान आधुनिक मानव पैदा हुआ।
- यह अफ़्रीका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे विभिन्न महाद्वीपो मे फैला था इसके बाद यह भिन्न प्रजातियों में विकसित हुआ ।
- यह आज का मानव है जिसकी कपाल क्षमता 1300 – 1600 cc है।
- इस मानव मे पूर्ण विकसित ठोडी, पूर्ण विकसित बोलने का केन्द्र, तुलनात्मक रूप से छोटा ललाट तथा शरीर पर बाल कम है।
- ये स्वभाव से सर्वाहारी है।
- कृषि का प्रारम्भ भी इसी मानव द्वारा किया गया । कृषि कार्य लगभग 10000 वर्ष पूर्व हुआ और मानव बस्तियाँ बनना शुरू हुई।
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