राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाण काल से प्रारंभ होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।
प्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान में वैसा मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और रंगमहल जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकर कालीबंग के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं।

कालीबंगा सभ्यता

जिला – हनुमानगढ़
नदी – सरस्वती(वर्तमान की घग्घर)
समय – 3000 ईसा पूर्व से 1750 ईसा पूर्व तक। राजस्थान की सबसे पुराणी सभ्यता
काल – ताम्र युगीन काल
खोजकर्ता – 1952 अमलानन्द घोस
उत्खनन कर्ता – (1961-69) बी. बी. लाल (बृजबासी लाल), बी. के. थापर(बालकृष्ण थापर)
कालीबंगा शाब्दीक अर्थ – काली चुडि़यां

कालीबंगा सभ्यता की विशेषताएं:

जुते हुऐ खेत के साक्ष्य
यह नगर दो भागों में विभाजित है और दोनों भाग सुरक्षा दिवार(परकोटा) से घिरे हुए हैं।
लकड़ी से बनी नाली के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
यहां से ईटों से निर्मित चबुतरे पर सात अग्नि कुण्ड प्राप्त हुए है जिसमें राख एवम् पशुओं की हड्डियां प्राप्त हुई है। यहां से ऊंट की हड्डियां प्राप्त हुई है, ऊंट इनका पालतु पशु है।
यहां से सुती वस्त्र में लिपटा हुआ ‘उस्तरा‘ प्राप्त हुआ है।
यहां से कपास की खेती के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
जले हुए चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
युगल समाधी के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
यहां से मिट्टी से निर्मिट स्केल(फुटा) प्राप्त हुआ है।
यहां से शल्य चिकित्सा के साक्ष्य प्राप्त हुआ है। एक बच्चे का कंकाल मिला है।

आहड़ सभ्यता

जिला – उदयपुर
नदी – आयड़(बेड़च नदी के तट पर)
समय – 1900 ईसा पुर्व से 1200 ईसा पुर्व
काल – ताम्र पाषाण काल
खोजकर्ता – 1953 अक्षय कीर्ति व्यास
उत्खनन कर्ता – 1956 आर. सी. अग्रवाल(रत्नचन्द्र अग्रवाल) तथा एच.डी.(हंसमुख धीरजलाल) सांकलिया।
आहड़ का प्राचीन नाम – ताम्रवती नगरी
10 या 11 शताब्दी में इसे आघाटपुर/आघाट दुर्ग कहते थे।
स्थानीय नाम – धुलकोट

आहड़ सभ्यता की विशेषताएं:

ताम्बे की मुहरें तथा मुद्राएं , एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल एवं दूसरी और अपोलो अंकित है जिसके हाथ में तीर है तथा पीछे तरकश है।
ताम्बा गलाने की भट्टी मिली है।
यहाँ के निवासी शवों को आभूषणों सहित दफनाते थे।
यह सभ्यता बनास नदी सभ्यता का हिस्सा थी इसलिए इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं।

बालाथल सभ्यता

जिला – उदयपुर(वल्लभनगर तहसील के पास)
नदी – बनास

समय – 1900 ईसा पुर्व से 1200 ईसा पुर्व तक
आहड़ सभ्यता से सम्बधित ताम्र युगीन स्थल

खोजकर्ता व उत्खनन कत्र्ता – 1993 वी. एन. मिश्र(विरेन्द्र नाथ मिश्र)

विशेषता-
यहाँ एक बड़ा भवन, दुर्ग, सांड व कुत्ते की मूर्तियों के साथ ताम्बे के आभूषण मिले है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था के साक्ष्य मिले हैं।
कृषि के साथ – साथ पशुपालन का प्रचलन था।

गिलुण्ड सभ्यता

जिला – राजसमंद
खोजकर्ता / उत्खनन कर्ता – 1957- 58 वी. बी.(वृज बासी) लाल
आहड़ सभ्यता से सम्बधित ताम्र युगीन सभ्यता
बनास के किनारे यह सभ्यता विकसित हुई थी।
यह 1500 ई. पू. की सभ्यता है।

गणेश्वर सभ्यता

जिला – सीकर, नीम का थाना तहसील
खोजकर्ता/उत्खनन कत्र्ता – 1977 आर. सी.(रत्न चन्द्र) अग्रवाल
नदी – कांतली
समय – 2800 ईसा पुर्व
काल – ताम्रयुगीन सभ्यता

विशेषताएं-
मछली पकड़ने का कांटा मिला है।
ताम्र निर्मित बरछी (कुल्हाड़ी ) मिली है।
शुद्ध तांबे निर्मित तीर, भाले, तलवार, बर्तन, आभुषण, सुईयां मिले हैं।

बैराठ सभ्यता

जिला – जयपुर
नदी – बाणगंगा
समय – 600 ईसा पुर्व से 1 ईस्वी
काल – लौह युगीन
खोजकर्ता/ उत्खनन कर्ता – 1935 – 36 दयाराम साहनी
प्रमुख स्थल – बीजक की पहाड़ी, भीम की डुंगरी, महादेव जी डुंगरी

विशेषता

मत्स्य जनपद की राजधानी – विराटनगर
(मत्स्य जनपद – जयपुर, अलवर, भरतपुर)
विराटनगर – बैराठ का प्राचीन नाम है।

महाभारत संस्कृति के साक्ष्य
पाण्डुओं ने अपने 1 वर्ष का अज्ञातवास विराटनगर के राजा विराट के यहां व्यतित किया था।

बौद्धधर्म के साक्ष्य
बैराठ से हमें एक गोलाकार बौद्ध मठ मिला है।

मौर्य संस्कृति के साक्ष्य
मौर्य समाज – 322 ईसा पुर्व से 184 ईसा पुर्व

सम्राट अशोक का भाब्रु शिलालेख बैराठ से मिला है।
भाब्रु शिलालेख की खोज – 1837 कैप्टन बर्ट
वर्तमान में भाब्रु शिलालेख कोलकत्ता के संग्रहालय में सुरक्षित है।
इसकी भाषा – प्राकृत भाषा
लिपी – ब्राह्मी लिपि

हिन्द-युनानी संस्कृति के साक्ष्य
यहां से 36 चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं 36 में से 28 सिक्के हिन्द – युनानी राजाओं के है। 28 में से 16 सिक्के मिनेण्डर राजा(प्रसिद्ध हिन्द – युनानी राजा) के मिले हैं।
शेष 8 सिक्के प्राचीन भारत के सिक्के आहत(पंचमार्क) है।

सुनारी सभ्यता

जिला – झुन्झुनू
तांबा गलाने की भट्टीयां मिली है।

रेड सभ्यता

जिला – टोंक
लौहे के भण्डार प्राप्त हुए हैं।
इस कारण इसे ‘प्राचीन भारत का टाटानगर’ कहा जाता है।

नालियासर सभ्यता

जिला – जयपुर
लोहा युगीन सभ्यता

रंगमहल, पीलीबंगा

जिला – हनुमानगढ़
कांस्ययुगीन सभ्यता(सिन्धु घाटी सभ्यता के स्थल)
करणपुरा(नोहर) नवीनतम स्थल

नगरी सभ्यता

जिला – चित्तौड़गढ़
नगरी का प्राचीन नाम – मध्यमिका

नगर सभ्यता

जिला – टोंक
प्राचीन नाम – मालव नगर

प्रागैतिहासिक पृष्ठभूमिराजस्थान अपनी जटिल भू-जैविकीय संरचना के लिये जाना जाता है। इस सम्पूर्ण प्रदेश को अरावली पर्वत माला दो भिन्न भागों में बांटती है। इस पर्वतमाला के पूर्व का भाग हरा-भरा क्षेत्र है तो पश्चिमी भाग बलुई स्तूपों वाला रेगिस्तान। प्रागैतिहासिक काल में विश्व दो भूखण्डों- अंगारालैण्ड तथा गौंडवाना लैण्ड में बंटा हुआ था। इन दोनों भूखण्डों के बीच में टेथिस महासागर था। राजस्थान के मरुस्थलीय एवं मैदानी भाग टेथिस सागर को नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से पाट दिये जाने से बने जबकि गौंडवाना लैण्ड के एक अंश के विलग होकर उत्तर की ओर खिसकने से राजस्थान के अरावली पर्वत एवं दक्षिणी पठार बने।

रेगिस्तान का उद्भव

पौराणिक उल्लेखों के अनुसार किसी युग में यहाँ आज का सा रेगिस्तान नहीं था अपितु लवण सागर नामक खारा समुद्र लहराता था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब भगवान श्रीराम लंका जाने के लिये वानरों सहित समुद्र के किनारे पहुँचे तो उन्होंने लंका पर चढ़ाई करने हेतु समुद्र से मार्ग मांगा। समुद्र ने भगवान का अनुरोध नहीं सुना तो भगवान ने समुद्र का जल सोखने के लिये आग्नेयास्त्र का संधान किया जिसे देखकर समुद्र भयभीत हो गया तथा उसने भगवान को समुद्र पार करने का उपाय बता दिया। समुद्र ने भगवान से प्रार्थना की कि इस अमोघ आग्नेयास्त्र का प्रयोग द्रुमकुल्य (लवणसागर का उत्तरी भाग) पर करें, जहाँ दुष्ट आभीर आदि समुद्र का जल अपवित्र करते हैं। भगवान ने वैसा ही किया। गगनभेदी गंभीर गर्जन के साथ समुद्र का पानी सूख गया और उस स्थल पर जहाँ कि आग्नेयास्त्र गिरा, एक विशाल छिद्र हो गया जिससे विमल जल का स्रोत फूटने लगा। यह स्रोत तीर्थराज पुष्कर कहलाता है। इस स्रोत के चारों ओर मरूकांतार क्षेत्र की उत्त्पत्ति हो गयी जिसमें श्रीराम की कृपा से सब प्रकार का आनंद हो गया। यह स्थान पशु सम्पदा, फल-फूल रसादि से भरपूर तथा अल्परोगी हो गया। श्रीराम के प्रभाव से उसके मार्ग भी निरापद तथा कल्याणकारी हो गये।

पश्चिमी राजस्थान का यह मरुस्थल विश्व के अन्य मरुस्थलों- ऑस्ट्रेलिया, चीन, अरब, अफ्रीका, अमरीका आदि की तुलना में जल, वनस्पति, पशु, मानव, संस्कृति तथा प्राकृतिक सौंदर्य के मामले में श्रेष्ठ है। बीकानेर जिले से ‘ट्राइबोलाइट’ जीवाश्म मिले हैं। ट्राइबोलाइट कैम्ब्रियन युग के निचले स्तर पर पाये जाते हैं। ये डायनोसार से पहले लुप्त हुए थे। इनका युग 57 करोड़ साल पुराना माना गया है। उस समय पृथ्वी पर बहुकोशीय जीवों की उत्त्पत्ति तेजी से हो रही थी। इस कारण धरती पर ट्राइबोलाईट जीवों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। अभी तक यह पता नहीं चला है कि इनका भोजन क्या था।

जैसलमेर के वुड फॉसिल पार्क में लगभग 18 करोड़ वर्ष पुरानी वनस्पतियों तथा जीवों के फॉसिल्स प्राप्त होते हैं। इस मरू प्रदेश से डायनासोर के कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं जो 60 लाख वर्ष या उससे भी अधिक पुराने हैं। इससे अनुमान होता है कि रेगिस्तानी प्रदेश का सम्पूर्ण भू-भाग एक साथ समुद्र से निकलकर भू-प्रदेश में नहीं बदल गया अपितु धीरे-धीरे अलग-अलग काल में पृथ्वी समुद्र से बाहर निकली। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में करोड़ों वर्ष लगे।

समुद्र के इस क्षेत्र से हटने की घटना को ऋग्वैदिक ऋषियों ने अपनी आँखों से देखा। ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 136वें सूक्त के 5वें मंत्र में पूर्व तथा पश्चिम के दो समुद्रों का स्पष्ट उल्लेख है जिनका विवरण शतपथ ब्राह्मण भी देता है। पुराणों में वर्णित जलप्लावन की घटना भी इस ओर संकेत करती है। काठक संहिता, तैत्तरीय संहिता, तैत्तरीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति के वराह बनकर पृथ्वी प्राप्ति का वर्णन मिलता है। प्राचीन ऋषियों के अनुसार एक बार सारी पृथ्वी पर संवर्तक अग्नि से भयंकर दाह हुआ। उसके बाद एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान जलप्लावन आया। सारी पृथ्वी जल निमग्न हो गयी। वृष्टि की समाप्ति पर जल के शनैः शनैः नीचे होने से कमलाकार पृथ्वी प्रकट होने लगी। उस समय उन जलों में ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया, उनके साथ योगज शरीर धारी सप्त ऋषि और कई अन्य ऋषि-मुनि भी प्रकट हुए। सृष्टि वृद्धि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात् समुद्र के जलों के ऊँचा हो जाने के कारण एक दूसरा जल प्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय में आया। मनु ने एक नौका में अपनी और अनेक प्राणियों की रक्षा की।

आज से 25 हजार वर्ष पहले राजस्थान विश्व का सबसे विकसित एवं समृद्ध प्रदेश था, जब यहाँ वेदों की रचना हुई। 25 हजार वर्ष पहले का काल चौथी बर्फ जमने का काल अथवा प्लायंस्टीन कहलाता है। उस समय धरती का पचहत्तर प्रतिशत भाग पानी से ढका हुआ था तथा टीथिस सागर भारत को बीच से दो खण्डों में विभक्त करता था। तब सिंध, कच्छ की खाड़ी तथा ऊपरी आधा राजस्थान समुद्र में डूबा हुआ था। बीच में 4 मील ऊँचा अरावली पर्वत था। इस पर्वत के ढाल पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण की ओर थे। बरसात का मौसम लगभग पूरे वर्ष चलता था तथा बादल छंटते नहीं थे। भारी वर्षा से अरावली पर्वत कटता गया तथा उसके धातु, रसायन एवं मिट्टी बहकर आंध्रप्रदेश तक पहुंच गये। उन दिनों सरस्वती, दृश्द्वती, चितांग, मारकण्डा, सिंधु, शतुद्रु (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुष्णी (रावी), अस्किनी (चिनाव) तथा वितस्ता (झेलम) नामक नदियाँ पंजाब तथा राजस्थान के क्षेत्र में बहती थीं। मनु ने सरस्वती, सिन्धु तथा सिंधु की पाँचों सहायक नदियों (शतुद्रु, विपाशा, परुष्णी, अस्किनी तथा वितस्ता) के क्षेत्र को सप्तसिंधु कहकर संबोधित किया है। स्वयं मनु एक कुटिया में नदी के तट पर रहते थे जो समुद्र से भी अधिक दूर नहीं थी।

समुद्र के गर्भ से निकलने के कारण आज भी रेगिस्तान में नमक, फ्लोराइड व खड्डी बहुतायत से मिलते हैं तथा रेतीले धोरों में शंख, सीपी एवं घोंघे प्राप्त होते हैं। बाड़मेर तथा जालोर के दक्षिणी भागों में फैला नेहड़ क्षेत्र आज भी इस प्रक्रिया से होकर गुजर रहा है। ‘नेहड़’ शब्द ‘नीरहृत’ शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है- ‘जल का हृदय।’ अर्थात आज से कुछ सौ वर्ष पूर्व तक यहाँ जल लहराता था। इस क्षेत्र से कुछ प्राचीन मस्तूल आदि मिले हैं। जो इस बात को सिद्ध करते हैं कि यहाँ जल ही जल था जिसमें नौकायें चला करती थीं। सम्पूर्ण रेगिस्तानी क्षेत्र में खारे पानी की झीलें प्राप्त होती हैं जिनमें सांभर, डीडवाना, पचपद्रा, लूणकरणसर तथा कावोद प्रमुख हैं। ये झीलें प्राचीन लवणसागर की अवशेष प्रतीत होती हैं।

पाषाण कालीन सभ्यताएँ

प्रदेश में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त जो प्राचीनतम पाषाण उपलब्ध हुए हैं, वे लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने हैं। इस भूखण्ड में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा-पाषाण, मध्य-पाषाण तथा उत्तर-पाषाण काल से होकर गुजरी।

पुरा-पाषाण काल डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से पचास हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। इस काल में हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर आदि का प्रयोग करने वाला मानव बनास, गंभीरी, बेड़च, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों में (आज जहाँ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़ तथा जयपुर जिले हैं) रहता था जहाँ प्रस्तर युगीन मानव के चिह्न मिले हैं। इस युग के भद्दे तथा भौंडे हथियार अनेक स्थानों से मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि लगभग पूरे प्रदेश में इस युग का मानव फैल गया था। इन हथियारों को प्रयोग में लाने वाला मनुष्य सभ्यता के उषा काल पर खड़ा था। उसका आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अनचर, ऊणचा देवड़ी, हीराजी का खेड़ा, बल्लू खेड़ा (चित्तौड़ जिले में गंभीरी नदी के तट पर), भैंसरोड़गढ़, नगघाट (चम्बल और बामनी के तट पर) हमीरगढ़, सरूपगंज, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुंवारिया, गिलूंड (भीलवाड़ा जिले में बनास के तट पर), लूणी (जोधपुर जिले में लूनी के तट पर), सिंगारी और पाली (गुड़िया और बांडी नदी की घाटी में), समदड़ी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भांडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, धुंधाड़ा, गोलियो, पीपाड़, खींवसर, उम्मेदनगर (मारवाड़ में), गागरोन (झालवाड़), गोविंदगढ़ (अजमेर जिले में सागरमती के तट पर), कोकानी, (कोटा जिले में परवानी नदी के तट पर), भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, पच्चर, तारावट, गोगासला, भरनी (टोंक जिले में बनास तट पर) आदि स्थानों से उस काल के पत्थर के हथियार प्राप्त हुए हैं।

मध्य-पाषाण काल लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व से आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी ओर उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर में भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं हुआ था।

उत्तर-पाषाण काल का आरंभ लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व से माना जाता है। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाये गये। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और वामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, बनास नदी के तट पर टौंक जिले में भरनी आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इस काल में कपास की खेती भी होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था। व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था। इस युग के उपकरण उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा नाम स्थानों पर मिले हैं।

ताम्र, कांस्य एवं लौह युगीन सभ्यताएँ

गणेश्वर (सीकर), आहड़ (उदयपुर), गिलूण्ड (राजसमंद), बागोर (भीलवाड़ा) तथा कालीबंगा (हनुमानगढ़) से ताम्र-पाषाण कालीन, ताम्रयुगीन एवं कांस्य कालीन सभ्यतायें प्रकाश में आयी हैं। ताम्रयुगीन प्राचीन स्थलों में पिण्डपाड़लिया (चित्तौड़), बालाथल एवं झाड़ौल (उदयपुर), कुराड़ा (नागौर), साबणिया एवं पूगल (बीकानेर), नन्दलालपुरा, किराड़ोत व चीथवाड़ी (जयपुर), ऐलाना (जालोर), बूढ़ा पुष्कर (अजमेर), कोल- माहोली (सवाईमाधोपुर) तथा मलाह (भरतपुर) विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी स्थलों पर ताम्र उपकरणों के भण्डार मिले हैं। लौह युगीन सभ्यताओं में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1996, व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखिये-राजस्थान के महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल) (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1999, दो सौ शब्दों में लिखिये- राजस्थान के महत्वूपर्ण पुरातात्विक स्थलों के बारे में लिखिये।)

सरस्वती नदी सभ्यता

राजस्थान में वैदिक काल तथा उससे भी पूर्व सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी जिसके किनारे पर आर्यों ने अनेक यज्ञ व युद्ध किये। सरस्वती नदी की उत्त्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गयी है। यह स्थान मीरपुर पर्वत है जिसे ऋग्वेद में सारस्वान क्षेत्र कहा गया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में सूत्र 53 के मंत्र 8 में दृषद्वती के अतिरिक्त अश्वन्वती नदी का उल्लेख है। कुछ विद्वान इन दोनों नदियों (दृषद्वती तथा अश्वन्वती) को एक ही समझते हैं तथा सरस्वती एवं दृषद्वती का मरूप्रदेश में बहते रहना स्वीकार करते हैं। दसवीं सदी के आसपास दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की गणना सारस्वत मण्डल में की जाती थी। यह पूरा क्षेत्र लूणी नदी बेसिन का एक भाग है। लूनी नदी सरस्वती की सहायक नदी थी। सरस्वती आज भी राजस्थान में भूमिगत होकर बह रही है। कुछ विद्वान घग्घर (हनुमानगढ़-सूरतगढ़ क्षेत्र में बहने वाली नदी) को भी सरस्वती का परवर्ती रूप मानते हैं। सरस्वती के लिये महाकवि कालिदास ने ‘अंतः सलिला’ विशेषण का प्रयोग किया है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि सरस्वती अम्बाला जिले के उप हिमालय की श्रेणियों से निकलती थी जो किसी कारण से सूख गयी थी। इसका तल पीली-चिकनी उपजाऊ मिट्टी का समतल हिस्सा है। इसके किनारे-किनारे छोटे-बड़े चपटे एवं ऊंचे टीले नजर आते हैं जिन्हें थेड़ कहा जाता है। यह नदी (सरस्वती) आजकल छोटी धारा के रूप में निकलकर प्राचीन नगर कुरूक्षेत्र, थानेश्वर पिवोहा होती हुई कुछ और धाराओं से मिलकर घग्घर में मिल जाती है तथा दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हुई हिसार जिले के सिरसा नगर के आगे कुछ दूरी तक बहकर बीकानेर में प्रवेश करती है। यह नदी (सरस्वती) कब सूख गयी, कहना कठिन है।

मान्यता है कि सरस्वती के किनारे एक घना वन था, उसका नाम काम्यक वन था। पांडव वनवास के लिये हस्तिनापुर से पश्चिम की ओर एक समतल जल रहित रास्ते से गये थे। महाभारत में भी सरस्वती के मरुप्रदेश में विलीन हो जाने का उल्लेख है। हनुमानगढ़ जिले में घग्घर को नाली कहा जाता है। यहाँ पर एक दूसरी धारा जिसे नाईवाला कहते हैं, घग्घर में मिल जाती है, जो असल में सतलज का प्राचीन बहाव क्षेत्र है। यह सरस्वती नदी का पुराना हिस्सा था। तब तक सिंधु में मिलने के लिये सतलज में व्यास का समावेश नहीं हो पाया था। हनुमानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर नाली के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे दिखायी देते हैं। यही कारण है कि आज भी हनुमानगढ़ जंक्शन कस्बे का सामान्य धरातल नदी के पेटे के स्तर से नीचे है। (आर.ए.एस. प्रारंभिक परीक्षा 2007, राजस्थान के कौनसे कस्बे का साधारण धरातल स्तर उसके पास की नदी के पेटे के स्तर के नीचे है- पाली/हनुमानगढ़ जंक्शन/टोंक/बालोतरा?) सूरतगढ़ से तीन मील पहले ही एक और सूखी हुई धारा आकर घग्घर में मिलती है। यह सूखी धारा वास्तव में दृशद्वती है। सूरतगढ़ से आगे अनूपगढ़ तक तीन मील की चौड़ाई रखते हुए नदी के दोनों किनारे और भी ऊंचे दिखायी देते हैं जिनके बीच में गंगनहर की सिंचाई से खूब हरा-भरा भाग है। यहीं पर अनेक गाँव बसे हैं। बीकानेर जिले में पहुँच कर घग्घर जल रहित हो जाती है किंतु वर्षा होने से ऊपरी क्षेत्र से जल प्राप्त हो जाता है। दृशद्वती हिमालय की निचली पहाड़ियों से कुछ दक्षिण से निकलती है। पंजाब में इसे चितांग बोलते हैं। भादरा में फिरोजशाह की बनवाई हुई पश्चिम यमुना नहर, दृशद्वती के कुछ भाग में दिखायी पड़ती है। भादरा के आगे नोहर तथा दक्षिण में रावतसर के पास इसके रेतीले किनारे दिखते हैं। आगे अनुपजाऊ किंतु हरा-भरा क्षेत्र है।

सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु नदी हिमालय पर्वत से निकल कर पंजाब तथा सिंध प्रदेश में बहती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी के दोनों तटों पर तथा इसकी सहायक नदियों के तटों पर जो सभ्यता विकसित हुई उसे सिंधु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता एवं मोहेनजोदड़ो सभ्यता कहा जाता है। यह तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता थी तथा इसका काल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 1750 वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियां हड़प्पा (पंजाब में) तथा मोहेनजोदड़ो (सिंध में) मानी जाती हैं। अब ये दोनों स्थल पाकिस्तान में चले गये हैं। मोहेनजोदड़ो शब्द का निर्माण सिन्धी भाषा के ‘मुएन जो दड़ो’ शब्दों से हुआ है जिनका अर्थ है- मृतकों का टीला। राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष कालीबंगा एवं रंगमहल आदि में प्राप्त हुए हैं। गंगानगर जिले में नाईवाला की सूखी धारा, रायसिंहनगर से अनूपगढ़ के दक्षिण का भाग तथा हनुमानगढ़ से हरियाणा की सरहद तक के सर्वेक्षण में पाया गया है कि नाईवाला की सूखी धारा में स्थित 4-5 टीलों पर गाँव बस चुके हैं। दृषद्वती के सूखे तल में भी काफी दूर तक टीले स्थित हैं। इस तल में स्थित 7-8 थेड़ों में हड़प्पाकालीन किंतु खुरदरे व कलात्मक कारीगरी रहित मिट्टी के बरतन के टुकड़ों की बहुतायत थी। सरस्वती तल में हड़प्पाकालीन छोटे-छोटे व उन्हीं के पास स्लेटी मिट्टी के बरतनों वाले उतने ही थेड़ मौजूद थे। हरियाणा की सीमा पर ऐसे थेड़ भी पाये गये जिन पर रोपड़ की तरह दोनों प्रकार के हड़प्पा व स्लेटी मिट्टी के ठीकरे मौजूद थे। हनुमानगढ़ किले की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ एक कुशाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला व अंदर का नगर कुशाण कालीन टीले पर बना है। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गये। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा, 1996-इतिहास, राजस्थान तथा गुजरात में किन स्थानों पर सिंधु घाटी सभ्यता पायी गयी है?)

कालीबंगा

हड़प्पाकालीन सभ्यता वाले 30-35 थेड़, जिनमें कालीबंगा का थेड़ सबसे ऊँचा है, की खुदाई साठ के दशक में की गयी। हनुमानगढ़-सूरतगढ़ मार्ग पर स्थित पीलीबंगा से लगभग 5 किलोमीटर दूर स्थित कालीबंगा में पूर्वहड़प्पा कालीन एवं हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। खुदाई के दौरान मिली काली चूड़ियों के टुकड़ों के कारण इस स्थान को कालीबंगा कहा जाता है। इस स्थान का पता पुरातत्व विभाग के निदेशक अमलानंद घोष ने ई.1952 में लगाया था। ई.1961-62 में बी.के.थापर, जे.वी.जोशी तथा वी.वी.लाल के निर्देशन में इस स्थल की खुदाई की गयी। (अधिशासी अधिकारी भर्ती संवीक्षा भर्ती परीक्षा 2008, कालीबंगा सभ्यता को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय दिया जा सकता है- बी.बी. लाल/बी.के. थापर/एम.डी. खरे/अमलानंद घोष?)

कालीबंगा के टीलों की खुदाई के दौरान दो भिन्न कालों की सभ्यता प्राप्त हुई है। पहला भाग 2400 ई.पू. से 2250 ई.पू. का है तथा दूसरा भाग 2200 ई.पू. से 1700 ई.पू. का है। यहाँ से एक दुर्ग, जुते हुए खेत, सड़कें, बस्ती, गोल कुओं, नालियों मकानों व धनी लोगों के आवासों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मकानों में चूल्हों के अवशेष भी मिले हैं। कालीबंगा के लोग मिट्टी की कच्ची या पक्की ईंटों का चबूतरा बनाकर मकान बनाते थे, बरतनों में खाना खाने की मिट्टी की थालियां, कूण्डे, नीचे से पतले व ऊपर से प्यालानुमा गिलास, लाल बरतनों पर कलापूर्ण काले रंग की चित्रकारी, मिट्टी की देवी की छोटी-छोटी प्रतिमायें, बैल, बैलगाड़ी, गोलियां, शंख की चूड़ियां, चकमक पत्थर की छुरियां, शतरंज की गोटी तथा एक गोल, नरम पत्थर की मुद्रा आदि मिले। बरतनों पर मछली, बत्तख, कछुआ तथा हरिण की आकृतियां बनी हैं। यहाँ से मिली मुहरों पर सैंधव लिपि उत्कीर्ण है जिसे पढ़ा नहीं जा सका है। यह लिपि दाहिने से बायें लिखी हुई है। यहाँ से मिट्टी, तांबे एवं कांच से बनी हुई सामग्री प्राप्त हुई है। छेद किये हुए किवाड़ एवं मुद्रा पर व्याघ्र का अंकन एक मात्र इसी स्थल पर मिले हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा 1987-इतिहास, कालीबंगा के उत्खनन से सैंधव सभ्यता पर क्या नवीन प्रकाश पड़ा है?, आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा, 1994-इतिहास, कालीबंगा के पुरातत्व स्थल का क्या महत्व है?, आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1997, निम्न के बारे में आप क्या जानते हैं?- कालीबंगा।) (अधिशासी अधिकारी भर्ती संवीक्षा भर्ती परीक्षा 2008-किस पुरातात्विक स्थल से जुते हुए खेत का साक्ष्य प्राप्त हुआ है- धौलावीरा/कालीबंगा/ लोथल/रंगपुर?)

रंगमहल

सूरतगढ़-हनुमानगढ़ क्षेत्र में रंगमहल, बड़ोपल, मुण्डा, डोबेरी आदि स्थलों के आसपास के क्षेत्र में कई थेड़ मौजूद हैं जिनमें से कुछ की खुदाई की गयी है। इनमें रंगमहल का टीला सबसे ऊँचा है। ई. 1952 से 1954 के बीच स्वीडिश दल द्वारा रंगमहल के टीलों की खुदाई की गयी है। इस खुदाई से ज्ञात हुआ है कि प्रस्तर युग से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक यह क्षेत्र पूर्णतः समृद्ध था। यही कारण है कि यहाँ से प्रस्तर युगीन एवं धातु युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। रंगमहल के टीलों पर पक्की ईंटें व रोड़े, मोटी परत व लाल रंग वाले बरतनों पर काले रंग के मांडने युक्त हड़प्पा कालीन सभ्यता के बरतनों के टुकड़े बिखरे हुए दिखायी देते हैं। यहाँ से ताम्बे के दो कुषाण कालीन सिक्के तथा गुप्त कालीन खिलौने भी मिले हैं। तांबे के 105 सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।

आहड़ सभ्यता

सरस्वती-दृश्द्वती नदी सभ्यता से निकलकर इस प्रदेश के मानव ने आहड़, गंभीरी, लूनी, डच तथा कांटली आदि नदियों के किनारे अपनी बस्तियां बसाईं तथा सभ्यता का विकास किया। इन सभ्यताओं का काल पश्चिमी विद्वानों द्वारा 7 हजार से 3 हजार वर्ष पुराना ठहराया गया है जिसे कुछ भारतीय विद्वानों ने भी ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है किंतु कुछ विद्वानों ने पश्चिमी विद्वानों द्वारा बताये गये ईसा पूर्व के इतिहास को इन तिथियों से भी तीन हजार वर्ष पूर्व का होना सिद्ध किया है। यह सभ्यता उदयपुर जिले में आहड़ नदी के आस-पास, बनास, बेड़च, चित्तौड़गढ़ जिले में गंभीरी, वागन, भीलवाड़ा जिले में खारी तथा कोठारी आदि नदियों के किनारे अजमेर तक फैली थी। इस क्षेत्र में प्रस्तर युगीन मानव निवास करता था।

आहड़ टीले का उत्खनन डॉ. एच.डी. सांकलिया के नेतृत्व में हुआ था। प्राचीन शिलालेखों में आहड़ का पुराना नाम ताम्रवती अंकित है। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में इसे आघाटपुर अथवा आघट दुर्ग के नाम से जाना जाता था। बाद के काल में इसे धूलकोट भी कहा जाता था। उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर 1600 फुट लम्बे और 550 फुट चौड़े धूलकोट के नीचे आहड़ का पुराना कस्बा दबा हुआ है जहाँ से ताम्र युगीन सभ्यता प्राप्त हुई है। ये लोग लाल, भूरे व काले मिट्टी के बर्तन काम में लेते थे जिन्हें उलटी तपाई शैली में पकाया जाता था। मकान पक्की ईंटों के होते थे। पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था।

आहड़ सभ्यता की खुदाई में मानव सभ्यता के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रथम स्तर में मिट्टी की दीवारें और मिट्टी के बर्तन मिले हैं। दूसरा स्तर प्रथम स्तर के ऊपर स्थित है। यहाँ से बस्ती के चारों ओर दीवार भी मिली है। तीसरे स्तर से चित्रित बर्तन मिले हैं। चतुर्थ स्तर से ताम्बे की दो कुल्हाड़ियां भी प्राप्त हुई हैं। मकानों से अनाज पीसने की चक्कियां, ताम्बे के औजार तथा पत्थरों के आभूषण मिले हैं। गोमेद तथा स्फटिक की मणियां भी प्राप्त हुई हैं। तांबे की छः मुद्रायें व तीन मोहरें मिली हैं। एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकश से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यह मुद्रा दूसरी शताब्दी ईस्वी की है। यहाँ के लोग मृतकों को कपड़ों तथा आभूषणों के साथ गाढ़ते थे।

बागोर सभ्यता

भीलवाड़ा कस्बे से 25 किलोमीटर दूर कोठारी नदी के किनारे वर्ष 1967-68 में डॉ. वीरेंद्रनाथ मिश्र के नेतृत्व में की गयी खुदाई में 3000 ई. पू. से लेकर 500 ई. पू. तक के काल की बागोर सभ्यता का पता लगा। यहाँ के निवासी कृषि, पशुपालन तथा आखेट करते थे। यहाँ से तांबे के पाँच उपकरण प्राप्त हुए हैं। मकान पत्थरों से बनाये गये हैं। बर्तनों में लोटे, थाली, कटोरे, बोतल आदि मिले हैं।

बालाथल

बालाथल उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित है। यहाँ से 1993 में ई. पू. 3000 से लेकर ई. पू. 2500 तक की ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति के बारे में पता चला है। यहाँ के लोग भी कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे। ये लोग मिट्टी के बर्तन बनाने में निपुण थे तथा कपड़ा बुनना जानते थे। यहाँ से तांबे के सिक्के, मुद्रायें एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं। आभूषणों में कर्णफूल, हार और लटकन मिले हैं। यहाँ से एक दुर्गनुमा भवन भी मिला है तथा ग्यारह कमरों वाले विशाल भवन भी प्राप्त हुए हैं।

गणेश्वर सभ्यता

सीकर जिले की नीम का थाना तहसील में कांटली नदी के तट पर गणेश्वर टीला की खुदाई 1977-78 में की गयी थी। यहाँ से प्राप्त सभ्यता लगभग 2800 वर्ष पुरानी है। ताम्र युगीन सभ्यताओं में यह अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन केंद्र है। यह सभ्यता सीकर से झुंझुनूं, जयपुर तथा भरतपुर तक फैली थी। यहाँ से मछली पकड़ने के कांटे मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उस समय कांटली नदी में पर्याप्त जल था। यहाँ का मानव भोजन संग्रहण की अवस्था में था। यहाँ से ताम्र उपकरण एवं बर्तन बड़ी संख्या में मिले हैं। ऐसा संभवतः इसलिये संभव हो सका क्योंकि खेतड़ी के ताम्र भण्डार यहाँ से अत्यंत निकट थे। मिट्टी के बर्तनों में कलश, तलसे, प्याले, हाण्डी आदि मिले हैं जिनपर चित्रांकन उपलब्ध है। (प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालय अध्यापक प्रतियोगी परीक्षा 2004, गणेश्वर का टीला जहाँ से ताम्रयुगी अवशेष मिले हैं, स्थित है?)

ऋग्वैदिक सभ्यता

सरस्वती और दृश्द्वती के बीच के हिस्से को मनु ने ब्रह्मावर्त बताया है जो अति पवित्र एवं ज्ञानियों का क्षेत्र माना गया है। आगे उत्तर-पूर्व में कुरुक्षेत्र स्वर्ग के समान माना गया है। सरस्वती-दृश्द्वती के इस क्षेत्र में पाकिस्तान की सीमा से लगते अनूपगढ़ क्षेत्र से उत्तर पूर्व की ओर चलने पर हड़प्पा कालीन सभ्यता से बाद की सभ्यता के नगर बड़ी संख्या में मिलते हैं जो भूमि के नीचे दबकर टीले के रूप में दिखायी पड़ते हैं। इन टीलों में स्लेटी मिट्टी के बर्तन काम में लाने वाली सभ्यता निवास करती थी। यह सभ्यता हड़प्पा कालीन सभ्यता से काफी बाद की थी। अनूपगढ़ तथा तरखानवाला डेरा से प्राप्त खुदाई से इस सभ्यता पर कुछ प्रकाश पड़ा है। राजस्थान में इस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य टीलों में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं ये सभ्यतायें लौह युगीन सभ्यता का हिस्सा हैं। सुनारी से लौह प्राप्त करने की प्राचीनतम भट्टियाँ प्राप्त हुई हैं।

महाभारत कालीन सभ्यता

महाभारत काल के आने से पूर्व मानव बस्तियां सरस्वती तथा दृशद्वती क्षेत्र से हटकर पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसक आयीं थीं। उस काल में कुरु जांगलाः तथा मद्र जांगलाः के नाम से पुकारे जाने वाले क्षेत्र आज बीकानेर तथा जोधपुर के नाम से जाने जाते हैं। इस भाग के आस पास का क्षेत्र सपादलक्ष कहलाता था। कुरु, मत्स्य तथा शूरसेन उस काल में बड़े राज्यों में से थे। अलवर राज्य का उत्तरी विभाग कुरुदेश के, दक्षिणी और पश्चिमी विभाग मत्स्य देश के और पूर्वी विभाग शूरसेन के अंतर्गत था। भरतपुर तथा धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शूरसेन देश के अंतर्गत थे। शूरसेन देश की राजधानी मथुरा, मत्स्य की विराट तथा कुरु की इन्द्रप्रस्थ थी। महाभारत काल में शाल्व जाति की बस्तियों का उल्लेख मिलता है जो भीनमाल, सांचोर तथा सिरोही के आसपास थीं।

बैराठ सभ्यता

मौर्य कालीन सभ्यता के प्रमुख अवेशष बैराठ से प्राप्त हुए हैं। इस कारण इसे बैराठ सभ्यता भी कहा जाता है। जयपुर से 85 किलोमीटर दूर विराटनगर की भब्रू पहाड़ी से मौर्य सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है। ई. 1840 में यह शिलालेख एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (कलकत्ता) को स्थानांतरित कर दिया गया। ई. 1909 में बीजक की पहाड़ी में एक बौद्ध विहार (गोलमंदिर) के अवशेष प्राप्त हुए। इस विहार को सम्राट अशोक के शासन काल के प्रारंभिक दिनों में निर्मित माना जाता है। इसमें पत्थरों के स्थान पर लकड़ी के स्तंभों तथा ईंटों का प्रयोग हुआ है। इस स्थान से अलंकारिक मृद्पात्र, पहिये पर त्रिरत्न तथा स्वस्तिक के चिह्न प्राप्त हुए हैं। जयपुर नरेश सवाई रामसिंह के शासन काल में यहाँ से एक स्वर्णमंजूषा भी प्राप्त हुई थी जिसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष थे। चीनी चात्री ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र में 8 बौद्ध विहार देखे थे जिनमें से 7 का अब तक पता नहीं चल पाया है। अशोक ने जिस योजना के अनुसार शिलालेख लगवाये थे, उसके अनुसार इन 8 बौद्ध विहारों के पास 128 शिलालेख लगवाये होंगे किंतु इनमें से अब तक कुल 2 शिलालेख ही प्राप्त हुए हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1988 एवं 1994, निम्न के बारे में आप क्या जानते हैं- बैराठ?) (आर.ए.एस. प्रारंभिक परीक्षा वर्ष 2013, सामान्य ज्ञान, अशोक के किस अभिलेख में पारम्परिक अवसरों पर पशु बलि पर रोक लगाई गई है, ऐसा लगता है कि यह पाबंदी पशुओं के वध पर थी- अ. शिला अभिलेख 1, ब. स्तम्भलेख 5, स. शिला अभिलेख 9, द. शिला अभिलेख 11.)

ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में समस्याएँ

राजस्थान एक विस्तृत प्रदेश है। इसका 61.11 प्रतिशत भाग मरुस्थल है। इतने बड़े प्रदेश में पुरातात्विक सामग्री, प्राचीन भवन, दुर्ग, महल, देवालय, स्मारक, सरोवर, बावड़ियां, मूर्तियां, शिलालेख, प्राचीन ग्रंथ, शासकीय अभिलेख, सिक्के, ताड़पत्र, ताम्रपत्र आदि का विशाल भण्डार भरा पड़ा है। इस सम्पूर्ण सामग्री को खोज-खोज कर सुरक्षित स्थान पर संजोना अत्यंत परिश्रमयुक्त एवं खर्चीला कार्य है। इस कार्य में निपुण व्यक्तियों का भी अभाव है। इस कारण राजस्थान में प्राचीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रख पाना बहुत बड़ी समस्या है। फिर भी राजस्थान सरकार ने पूरे राज्य में बड़ी संख्या में राजकीय संग्रहालयों की स्थापना की है। बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार तथा जोधपुर में प्राच्य विद्या संस्थान की स्थापना की गयी है। जयपुर, बीकानेर, चित्तौड़, जयपुर, अलवर, कोटा तथा उदयपुर में इसकी शाखायें स्थापित की गयी हैं। राजस्थान में मौजूद पुराने दुर्गों एवं ऐतिहासिक भवनों का संरक्षण करने के लिये पर्याप्त संसाधन नहीं हैं जिसके कारण कई दुर्ग, हवेलियाँ, मंदिर एवं महल उपेक्षित पड़े हैं। कुछ वर्ष पूर्व शेखावाटी की कलात्मक हवेलियों में भित्ति चित्रों की दुर्दशा देखकर एक विदेशी महिला नदीन ला प्रैन्स ने एक हवेली खरीदकर उसका पुनरुद्धार करवाया और वहाँ एक सांस्कृतिक केन्द्र बनाया। इसमें भारत और फ्रान्स के चित्रकारों की एक प्रदर्शनी भी लगाई गई।

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