स्वामी विवेकानंद पर निबंध

स्वामी विवेकानंद पर निबंध

स्वामी विवेकानंद - स्वामी विवेकानंद पर निबंध
स्वामी विवेकानंद

भूमिका : हमारे भारत देश में अनेक योगियों, ऋषियों, मुनियों, विद्वानों, महान पुरुषों और महात्माओं ने जन्म लिया है जिन्होंने भारत को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाया है। इन महान पुरुषों में से एक स्वामी विवेकानंद भी थे। उन्होंने अमेरिका जैसे देश में भारत माता का नाम रोशन किया था। स्वामी विवेकानंद जी एक महान आयोजक और वक्ता थे।

इस देश में और विदेशों में गरीबों के लिए उनका दिल धराशायी है। वेदांत को विदेशों में संदेश भेजने में सफलतापुर्वक श्रेय जाता है। स्वामी जी को एक बौद्धिक दिग्गज के रूप में देखा जा सकता है जिसने पूर्वी और पश्चिम के बीच एक पुल बनाया है। इसके साथ-साथ तर्क और विश्वास के बीच भी पुल बनाया था।

लेकिन इन सभी के पीछे उनकी बुनियादी प्रेरणा और उनकी आध्यात्मिक प्राप्ति थी। आधुनिक युग में भारत देश के युवा बहुत से महान पुरुषों के विचारों को आदर्श मानकर उनसे प्रेरित होते हैं युवाओं के वे मार्गदर्शक और भारतीय गौरव होते हैं उन्हीं में से एक स्वामी विवेकानंद भी थे। भारत की गरिमा को वैश्विक स्तर पर सम्मान के साथ बरकार रखने के लिए स्वामी विवेकानंद जी ने बहुत प्रयास किये थे।

स्वामी जी का जन्म : स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। स्वामी जी की माता का नाम भुवनेश्वरी देवी और पिता का नाम विश्वनाथ दत्ता था। स्वामी विवेकानंद जी का नाम नरेन्द्र नाथ दत्ता रखा गया था। स्वामी जी के पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने बेटे को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे।

5 साल की उम्र में उन्हें मेट्रोपोलीयन इंस्टीट्यूट में प्रवेश दिलाया गया था। सन् 1879 में उन्हें जनरल असेम्बली कालेज में उच्च शिक्षा पाने के लिए प्रवेश दिलाया गया। यहाँ पर उन्होंने इतिहास, दर्शन, साहित्य आदि बहुत से विषयों का अध्धयन किया। स्वामी जी ने बी०ए० की परीक्षा को प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया था।

प्रारंभिक जीवन : स्वामी जी को उनके प्रारंभिक जीवन में नरेंद्रनाथ के नाम से पहचाना जाता था। संपन्न और धार्मिक परिवार में बालक का पालन-पोषण बड़े लाड-प्यार से हुआ था। अत: यह बालक बचपन से ही हठी बन गया था। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने काम और प्रेरणा के लिए अपनी स्वंय की आत्मा की आध्यात्मिक गहराई के साथ एक मजबूत स्पर्श से ज्ञान को प्राप्त किया।

यह उनके व्यक्तित्व का वह पहलू था जो सभी को पोषण प्रदान करता है। उन्होंने अपने पिता से बहुत कुछ सीखा था। स्वामी जी सत्ता और धर्म को शंका की दृष्टि से देखते थे। लेकिन स्वामी जी एक जिज्ञासु प्रवृति के व्यक्ति थे।

रामकृष्ण के शिष्य : रामकृष्ण परमहंस जी की प्रशंसा सुनकर स्वामी जी पहले उनसे तर्क करने के विचार से मिलने गये थे लेकिन परमहंस जी ने स्वामी को देखते ही पहचान लिया था कि वे वही थे जिनका उनको कई दिनों से इंतजार था। जब स्वामी जी रामकृष्ण के सामने एक युवा के रूप में आए तो उन्होंने कहा था कि उनकी आँखें एक योगी की आँखें हैं और अपने दूसरे शिष्यों से नरेंद्र या विवेकानंद को बुलाने के लिए कहा था।

रामकृष्ण जी एक उच्च कर्म के आध्यात्मिक व्यक्तित्व थे। जब श्री रामकृष्ण ने उनकी आँखों में देखा तो पाया कि उनकी आखें खुली हुईं थीं और उनका आधा दिमाग भीतर कुछ देख रहा था और सिर्फ दूसरा आधा दिमाग ही दुनिया के बारे में जानता था। श्री रामकृष्ण जी ने कहा – यह महान योगियों की आँखों की विशेषता थी।

स्वामी जी को इस अंतर की जरूरत थी जो निरंतर उसे भीतर की आत्मा के करीब खींचती थी। विवेकानंद जी आध्यात्मिक आनंद का आनंद लेना चाहते थे लेकिन रामकृष्ण जी ने उन्हें बताया कि वह किसी अलग उद्देश्य के लिए किया गया था और वह एक सामान्य संतों की तरह नहीं था।

जो वो खुद के लिए आध्यात्मिक उत्साह का आनंद ले रहे थे। स्वामी जी एक ऐसे व्यक्ति थे जो भारत और विदेशों में लाखों लोगों के प्रेरणा के स्त्रोत थे। परमहंस जी की कृपा से उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ जिसकी वजह से वे परमहंस के प्रमुख शिष्य बन गए थे।

ईश्वर प्रेम : स्वामी जी की बुद्धि बचपन से ही बहुत तेज थी और परमात्मा को पाने की इच्छा भी उनके मन में बहुत प्रबल थी। इसी वजह से वे सबसे पहले ब्राह्मण समाज में गए थे लेकिन वहाँ पर उनके मन को संतोष नहीं हुआ। स्वामी जी ने उच्च कोटि की शिक्षा प्राप्त की थी। सन् 1884 में पिता जी के निधन के बाद उन्हें संसार से अरुचि पैदा हो गयी थी।

स्वामी जी ने रामकृष्ण परमहंसा से दीक्षा ले सन्यासी बनने की इच्छा प्रकट की। परमहंस जी ने उन्हें समझाया था कि सन्यास का सच्चा उद्देश्य मानव सेवा करना होता है। मानव सेवा से ही जीवन में मुक्ति मिल सकती है। परमहंस ने उन्हें दीक्षा दे दी और उनका नाम विवेकानंद रख दिया था।

सन्यास लेने के बाद उन्होंने सभी धर्मों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करना शुरू कर दिया था। श्री रामकृष्ण के पैरों पर बैठकर उन्होंने गुणों को विकसित किया और उच्चतम आध्यात्मिक प्राप्ति के आदमी बन गए थे। स्वामी विवेकानंद जी अपना जीवन अपने गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी को अर्पित कर चुके थे।

जब गुरु देव के शरीर त्याग के दिन निकट थे तो अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की और खुद के भोजन की परवाह न करते हुए गुरु की सेवा में हमेशा हाजिर रहे। गुरूजी का शरीर बहुत कमजोर हो गया था। कैंसर की वजह से गले से थूक, रक्त, कफ निकलता था जिसकी सफाई का स्वामी जी बहुत अधिक ध्यान रखते थे।

एक बार किसी ने गुरु देव की सेवा में नफरत और लापरवाही दिखाई और नफरत से नाक भौहें सिकोडी। यह सब कुछ देखकर स्वामी जी को गुस्सा आ गया। स्वामी जी ने उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके सिराने पर रखी रक्त और कफ की पूरी थूकदानी को पी गये थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही उन्होंने अपने शरीर और उनके आदर्शों की उत्तम सेवा की थी।

व्यक्तित्व : पिता जी की मृत्यु के बाद घर का सारा भार स्वामी जी के कंधों पर आ गया। उस समय घर की दशा बहुत खराब थी। लेकिन कुशल यही था कि स्वामी जी का विवाह नहीं हुआ था। बहुत अधिक गरीबी में भी स्वामी जी बड़े अथिति सेवी थे। स्वामी जी खुद भूखे रहकर अथिति को भोजन कराते थे और खुद बाहर वर्षा में भीगते रहते थे और अथिति को सोने के लिए अपना बिस्तर दे देते थे।

स्वामी जी ने अपने चरित्र का भवन आध्यात्मिकता की चट्टान की बुनियाद पर बनाया था। जो कि बुद्धिमता और क्षीण दिल के सशक्त व्यक्तित्व में अभिव्यक्ति प्राप्त करता था। कोई भी व्यक्ति इस बिंदु पर बल देने में मदद नहीं कर सकता क्योंकि स्वामी जी के कई व्यक्तित्व थे और वे विभिन्न रंगों में प्रकट हो सकते थे।

उनकी महानता के बारे में बहुत कुछ अनंत था। यह उपलब्धियों की दुनिया में परिचित उत्तीर्ण महानता के विपरीत है। इस प्रकार की महानता को समय का प्रवाह एक अजीब तरह से प्रभावित करता है। यह इसे कमजोर करने और नष्ट करने की जगह और मजबूत करता है।

वेदों में जड़ें और वहां से पौष्टिकता पैदा करने से इस प्रकार के पुरुषों और महिलाओं के व्यक्तित्व और काम कुछ आकर्षक लगने लगते हैं और उनके पास एक स्थाई चरित्र होता है। स्वामी जी ने आत्मिक प्राप्ति के सागर में गहराई से डुबकी लगाई थी, स्वामी जी ने उसी संदेश को नहीं दिया था बल्कि एक ही रूप में संदेश दिया था जैसा कि पश्चिम को दिया था।

स्वामी जी ने लोगों की जरूरतों के अनुरूप अपने संदेशों को अलग किया लेकिन इन सभी रूपों में एक केंद्रीय विषय की अभिव्यक्ति होती है और वह है आध्यात्मिकता। स्वामी जी अपने आप को गरीबों का सेवक कहते थे। स्वामी जी का स्वरूप बड़ा ही सुंदर और भव्य था। स्वामी जी का शरीर गठा हुआ था। उनके मुखमंडल पर तेज था। उनका स्वभाव अति सरल और व्यवहार अति विनम्र था।

विश्व धर्म सम्मेलन में भाग : स्वामी जी ने शिकांगों में सन् 1883 में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया था और भाषण भी दिया था। स्वामी विवेकानंद जी वहां पर भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे थे। भाषण का आरंभ उन्होंने बहनों और भाईयों शब्द से किया था। इस संबोधन से ही लोगों ने तालियाँ बजानी शुरू कर दी थीं।

स्वामी जी के भाषण को लोगों ने बहुत ही ध्यानपूर्वक सुना था। स्वामी जी ने कहा था कि संसार में एक ही धर्म होता है वह है मानव धर्म। राम, कृष्ण, मुहम्मद भी इसी धर्म का प्रचार करते रहे हैं। धर्म का उद्देश्य पानी मात्र को शांति देना होता है। शांति को प्राप्त करने के लिए द्वेष, नफरत, कलह उपाय नहीं होते हैं बल्कि प्रेम होता है। हिंदू धर्म का यही संदेश होता है। सभी में एक ही आत्मा का निवास होता है। स्वामी जी के इस भाषण से सभी बहुत प्रभावित हुए थे।

अमेरिका में प्रचार : यूरोप और अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत ही हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ के लोगों ने बहुत कोशिशें की कि स्वामी जी को सर्वधर्म सम्मेलन में बोलने का अवसर ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर पर उन्हें थोडा समय मिला लेकिन उनके विचारों को सुनकर सभी विद्वान् हैरान रह गये।

उसके बाद अमेरिका में उनका बहुत स्वागत किया गया। वहां पर स्वामी जी के भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया था। स्वामी जी तीन साल तक अमेरिका में रहे थे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे थे। इसके बाद स्वामी जी ने बहुत से स्थानों पर व्याख्यान दिए हैं।

ऐसी अनेक संस्थाओं की स्थापना हुई जिनका उद्देश्य वेदांत का प्रचार करना था। स्वामी जी ने जापान, फ्रांस और इंग्लेंड में भी मानव धर्म का प्रचार किया था। स्वामी जी की एक शिष्या भी थी जिनका नाम निवेदिता था। उन्होंने कलकत्ता में रहकर सेवा कार्य किया था।

देशवासियों को पत्र : जब स्वामी जी 25 वर्ष के थे तो उन्होंने गेरुआ रंग के वस्त्र पहन लिए इसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की थी। स्वामी जी ने जापान में अपने देशवासियों के नाम पत्र लिखा था। उस पत्र में स्वामी जी ने लिखा था कि तुम बातें बहुत करते हो लेकिन करते कुछ नहीं हो। उन्होंने उदाहरण के तौर पर कहा जापानवासियों को देखो इससे तुम सभी की आँखें खुल जाएँगी। उठो जागो और रुढियों के बंधन को काट दो। तुम्हारा जीवन सिर्फ सम्पत्ति कमाने के लिए नहीं बल्कि देश प्रेम की बलिदेवी पर समर्पित करने के लिए है।

राम कृष्ण मिशन की स्थापना : स्वामी जी चार साल तक अमेरिका और यूरोप में हिंदू धर्म का प्रचार करते रहे। इसके बाद वे भारत लौट आए थे। स्वामी जी ने कलकत्ता में राम कृष्ण मिशन की स्थापना की थी। इस मिशन की अनेक शाखाएं देश के विभिन्न भागों में स्थित हैं।

संदेश : भारतीय संदर्भ में उन्होंने देखा था कि आध्यात्मिकता का मार्ग भौतिक और सामाजिक उन्नति के माध्यम से होता है। इस समाप्ति के लिए स्वामी जी वेदांत को एक सामाजिक दर्शन और दृष्टिकोण, एक बार गतिशील और व्यवहारिक रूप से आकर्षित करते थे। भारत के लिए स्वामी जी ने मानव-निर्मित धर्म का संदेश दिया और राष्ट्र का विश्वास तथा संकल्प लिया।

प्यार और करुणा : जब स्वामी जी को पराने भारत की महिमा पर गर्व महसूस हुआ तो वे उसे अवन्ती और दुर्भाग्य की गहराई में देखने के लिए गंभीर रूप से पीड़ित थे। अपने देशवासियों के प्रति प्रेम, उनकी उम्र में पुरानी भुखमरी, अज्ञानता और सामाजिक विकलांगों के दुःख उन्हें बहुत गहराई में ले गये।

इस स्थिति के साथ सामना करने के लिए उनकी सारी मात्रा में आध्यात्मिकता और गतिशील दर्शन होने चाहिए। आध्यात्मिकता और गतिशील दर्शन में करुणा और प्रेम के प्रवाह में प्रलोभन और सेवा के एक राष्ट्रिय संदेश के रूप में पहुंचे थे। वेदांत एक बार फिर गतिशील और व्यवहारिक बन गया। यह स्वामी जी को सिर्फ एक महान ऋषि नहीं बनाता है बल्कि एक देशभक्त और युगनिर्माता भी बनाता है।

समाजिक जागरूकता : स्वमी जी के द्वारा राष्ट्रिय जागरूकता की एक लहर बही थी। स्वामी जी के द्वारा देशप्रेम और आम आदमी के बहुत से सुधार करने के लिए एक महान संघर्ष जारी रखा था। हमने जो भी राजनीतिक स्वतंत्रता के माध्यम से प्राप्त किया है वह सामाजिक जागरूकता के माध्यम से और राष्ट्रिय एकता के रूप में स्वामी जी द्वारा दिए गये भारत की आध्यात्मिकता के प्राचीन संदेश की ओर उन्मुखीकरण से आया है।

स्वामी जी मृत्यु : बहुत ज्यादा परिश्रम की वजह से स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरने लगा था। 4 जुलाई, 1902 में स्वामी जी की मृत्यु हो गयी थी। स्वामी जी ने जीवन के थोड़े से समय में यह कमाल कर दिखाया था जिसे लंबा जीवन होने के बाद भी लोग नहीं कर पाते हैं।

उपसंहार : स्वामी विवेकानंद जी महामानव के रूप में अवतरित हुए। स्वामी जी ने प्रचार-प्रसार में जो भूमिका प्रस्तुत की है वह अतुलनीय है। स्वामी जी भारत माँ के सच्चे पुत्र थे। स्वामी जी ने भारत का गौरव बढ़ाया और संसार के समक्ष भारत की एक अनुपम तस्वीर प्रस्तुत की थी।

स्वामी जी ने सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि धर्म वह होता है जो भूखे को अन्न दे सके और दुखियों के दुखों को दूर कर सके। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने स्पर्श के साथ दुनिया में एक गतिशील विश्व प्रेमी के रूप में गये थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने के लिए उन्होंने हमेशा प्रयास किया था।

स्वामी जी के कार्य आज भी आदर्श और प्रेरणा के स्त्रोत हैं। कन्याकुमारी में समुद्र के बीच बना विवेकानंद स्मारक इनकी स्मृति को संजोकर रखे हुए है। स्वामी जी ज्ञान की एक ऐसी मसाल प्रज्ज्वलित कर गये जो संसार को सदैव ही आलौकित करती रहेगी।

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स्वामी विवेकानंद पर निबंध Essay on Swami Vivekananda

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