पौधों में जल का परिवहन कैसे होता है
जंतुओं की तरह पेड़ तथा पौधों को जीवित रहने के लिए विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यक्ता होती है. इन पोषक तत्वों का पेड़ तथा पौधों के सभी भागों में पहुँचना अनिवार्य होता है चाहे जड़ें (roots) हो, टहनियां, पत्तियां आदि. पेड़ या पौधों के पूरे भाग को जल तथा अन्य खनिन, मिट्टी से प्राप्त होते है, जिसे जड़ के द्वारा अवशोषित कर विभिन्न भागों तक पहुँचाया जाता है. वहीं दूसरी ओर पेड़ तथा पौधों के द्वारा पत्तियों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया (photosynthesis) द्वारा भोजन बनाया जाता है, जिसे पत्तियों से पौधों के विभिन्न भागों तक पहुँचाया जाता है.
पेड़ तथा पौधों में परिवहन के लिये दो तरह के ऊतक (Tissue) होते हैं: ये हैं ज़ाइलम (Xylem) तथा फ्लोएम (Phloem), ये दोनों ऊतक (Tissue) मिलकर पौधों में विभि
न्न पदार्थों को जड़ (Root) से विभिन्न भागों तक तथा पत्तियों से जहाँ पर पौधों द्वारा भोजन तैयार किया जाता है, से पोषक तत्वों को विभिन्न भागों तक पहुँचाते हैं, अर्थात परिवहन (transportation) करते हैं. आइये इस लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं कि कैसे पौधों में जल का परिवहन होता है, किस ऊतक की मदद से जल पौधों में पहुंचता है आदि.
पौधों में जल अधिग्रहण विधि:-
पौधों में जल अधिग्रहण कि विधि को निम्न प्रकार से व्यक्त करते हैं |
मृदा जल ( Soil water ):-
मृदा से पौधे अपने संपूर्ण जल की आपूर्ति करते हैं | जल कि मात्रा मिट्टी की विभिन्न अवस्थाओं ( परिच्छेदिका ) में अलग – अलग होती हैं | तथा जल की मात्रा सामान्य मृदा में लगभग 25 % तक होती हैं |
अपवाहित जल ( Run away water ):- यह जल वर्षा द्वारा मिट्टी में आ जाता हैं | जो जल वर्षा के बाद ढलानों से बह जाता हैं , वह जल वहाँ उपस्थित पौधे को प्राप्त नहीं होता तथा यह बहा हुआ जल , अपवाहित जल ( Run away water ) कहलाता हैं |
गुरुत्वीय जल ( Gravitational water ):- वर्षा होने के बाद कुछ जल गुरुत्वाकर्षण बल के कारण अंतः स्त्रावण ( Percolation ) करके भौम जल स्तर ( Water table ) इस जल को गुरुत्वीय जल कहते हैं | गुरुत्वीय जल को पौधें अवशोषित नहीं कर पाते क्योंकि भौम जल स्तर तक जड़े नहीं पहुँच पाती हैं |
क्षेत्रीय जल धारिता ( Water holding capacity of soil ) :- वह शेष जल जो मिट्टी में गुरुत्वीय जल के भौम जल स्तर तक पहुँचने के बाद भी उसमें कुछ मात्रा में शेष रह जाता हैं , उस शेष जल को मृदा की क्षेत्रीय जल धारिता कहते हैं |
जल निम्न प्रकार के होते हैं , क्षेत्रीय जल धारिता की मात्रा के अनुसार –
1. केशिका जल :- वह जल जो मिट्टी के कणों में मध्य उपस्थित रंध्रों, छिद्रों , नलिकाओं आदि में भरा रहता हैं , केशिका जल कहलाता हैं | जड़े केशिका जल का अवशोषण करती हैं | केशिका जल मृदा में हर जगह बह सकता हैं |
2. आर्द्रता जल :- मिट्टी के कणों के चारों ओर जल के कुछ अणु वाष्प की अवस्था में पाए जाते हैं , जिसे आर्द्रता जल कहते हैं | आर्द्रता जल का अवशोषण पौधें नहीं करते हैं |
3. क्रिस्टलीय जल:- कुछ जल मिट्टी के कणों में उपस्थित लवणों की संरचना में रासायनिक रूप से इकट्ठा रहते हैं | उदाहरण – .5O , .7O , .10O में क्रिस्टलीय जल कहते हैं | मृदा के कणों के मध्य क्रिस्टलीय जल होता हैं | और पौधों को प्राप्त नहीं होता हैं |वाष्प के रूप में कुछ जल मृदा के रंध्रों में रहता हैं | क्रिस्टलीय जल का अवशोषण पौधें नहीं करते |
मुरझाना ( Wilting )
पौधे का एक तरफ झुक जाना मुरझाना कहलाता हैं | सूखे वातावरण में पानी की कमी कारण पौधें सिकुड़ ( मुरझा ) जाते है|
मुरझाने की क्रिया पौधों में दो प्रकार से पूर्ण होती हैं |
- अस्थाई मुरझाना
- स्थाई मुरझाना
1. अस्थाई मुरझाना ( Temporary wilting ):- पौधें दिन के समय गर्म वातावरण के कारण अधिक वाष्पीकरण से मुरझा जाते हैं | तथा रात में कम वाष्पीकरण होने से पौधें अपनी स्वभाविक अवस्था में आ जाते हैं | इसे अस्थाई मुरझाना कहते है| अस्थाई मुझाने को कार्यिकी शुष्कता ( Physiological dryness ) भी कह सकते हैं | क्योंकि कार्यिकी शुष्कता के कारण पौधों में ज्यादा मात्रा डालने पर भी पौधें कि पत्तियाँ अपनी स्वाभाविक अवस्था में नहीं आती , ये कार्यिकी में बदलाव से अपने आप ही दूर होती हैं |
2. स्थाई मुरझाना ( Permanent wilting ):- पौधे दिन के समय बहुत अधिक गर्म वातावरण के कारण , अधिक वाष्पीकरण से पौधे कि पत्तियाँ मुरझा जाती हैं तथा मिट्टी में पानी की कमी हो जाती हैं | जिससे पत्तियाँ रात में अपनी स्वाभाविक अवस्था में वापस नहीं आ पाती हैं , जिसे स्थाई मुरझाना कहते हैं | स्थाई मुरझाने को भौतिक शुष्कता ( Physical dryness ) भी कहते हैं | क्योंकि स्थाई मुरझाने कि क्रिया भूमि में जल स्तर बढ़ने पर ही दूर होती हैं |
म्लानि गुणांक ( Wilting coefficient )
म्लानि गुणांक मिट्टी में बचे शेष जल कि वह मात्रा हैं , जो पौधों में स्थाई मुरझाने के समय शेष रह जाती है , उसे म्लानि गुणांक कहते हैं | म्लानि गुणांक को मुरझान गुणांक एवं स्थाई म्लानि प्रतिशत भी कहते हैं | जल कि यह शेष मात्रा मृदा की बनावट ( Texture ) के आधार पर 1 – 15 % तक रह जाती हैं |
जल अवशोषण की क्रिया विधि ( Mechanism of water absorption )
जड़े मिट्टी से जल तथा खनिज लवणों का अवशोषण मूलीय त्वचा की कोशिकाओं तथा मूल रोम प्रदेश से करती हैं | मूलीय त्वचा का संपर्क मूलरोम मिट्टी के जल के साथ कई गुना बढ़ा देते हैं , जिससे जल का अवशोषण मूलीय त्वचा द्वारा अधिक होता हैं | प्रत्येक मूलरोम का जीवद्रव्य एवं कोशिका कला संयुक्त रूप से वर्णात्मक पारगम्य कला के समान कार्य करती और मृदा कणों के केशकीय जल के साथ सम्पर्क बनाती हैं | केन्द्रकीय रिक्तिका मूलरोम के अंदर पायी जाती हैं | कोशिका का रिक्तिका रस केन्द्रीय रिक्तिका में बहुत तत्व का विचलन होता हैं | केशिका जल कम मात्रा में घुले हुए खनिज लवणों के साथ वर्णात्मक पारगम्य कला से रिक्तिका रस में पहुँच जाता हैं | परासरण , सांद्रता के कारण यह जल रिक्तिका से कॉर्टेक्स की कोशिकाओं में पहुँच जाता हैं | जिससे मूल रोम से जल का अवशोषण अधिक होता रहता हैं | कॉर्टेक्स की कोशिकाओं से जल जड़ की जाइलम वाहिकाओं में परासरित हो जाता हैं|
सक्रिय जल अवशोषण :- सक्रिय जल अवशोषण परासरण दाब के कारण होता हैं | क्योंकि सक्रिय जल अवशोषण में कोशकीय श्वसन द्वारा उर्जा खर्च होती हैं |
निष्क्रिय जल अवशोषण :- निष्क्रिय जल अवशोषण वाष्पोत्सर्जी खिचाव से होता हैं | क्योंकि निष्क्रिय अवशोषण में उर्जा खर्च नहीं होती हैं |
वायुमंडल से वायवीय जड़ो द्वारा उपरिरोही पौधें ( Epiphytic plants ) नमी का विशिष्ट स्पंजी ऊतक वेलामैन द्वारा अवशोषण करते हैं |
संघर्षशील पौधे
राजस्थान के मरुस्थलीय भाग में भी बहुत बड़ी मानव आबादी निवास करती है। ये लोग जमीन में गहरे कुएँ खोद कर उनसे पानी निकालते हैं। बहुत कठिनाई से प्राप्त करने के कारण ये जल के महत्त्व को अच्छी तरह समझते हैं। इस कारण ये जल को बहुत ही किफायत से खर्च करते हैं। कठिन क्षेत्र में भी अपना जीवन मस्ती से गुजारते हैं। इन लोगों ने ऐसा जीवन जीने की कला पौधों से ही सीखी है। रेगिस्तान में जब चारों ओर सूखे का साम्राज्य फैला हो तब बबूल, खेजड़ी आदि वृक्षों को लहलहाते, फूल खिलाते देखा जा सकता है। रेगिस्तानी वृक्षों की विशेषता यह है कि इनकी जड़, भूमि के ऊपर रहने वाले भाग की तुलना में कई गुणा लम्बी व शाखान्वित होती है। जो जमीन में गहराई में उपस्थित जल को पर्याप्त मात्रा में एकत्रित कर ऊपरी भाग को भेजती है। इनके प्रयासों के कारण पौधों को जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि जल को अनावश्यक रूप से खर्च किया जाए। इन पौधों की पत्तियाँ छोटी होती हैं। पत्तियों पर जलरोधी पदार्थ की पर्त चढ़ी होती हैं, जिस कारण गर्मियों में भी इनकी सतह से बहुत कम जल खर्च होता है। रेगिस्तान में प्रमुख रूप से पाया जाने वाला केर का वृक्ष तो जल की बचत करने में इनसे भी एक कदम आगे बढ़ जाता है। केर में पत्तियाँ काँटे में बदल जाती हैं। इससे दो लाभ व एक हानि होती है। पहला लाभ यह है कि पत्तियाँ नहीं होने से वाष्प के रूप में जल की हानि नहीं होती। दूसरा लाभ यह कि काँटे होने के कारण कोई पशु इन्हें हानि नहीं पहुँचाता। हानि यह होती है कि पत्तियों के बिना भोजन कौन बनावे? केर ने उस हानि को रोकने का उपाय भी कर लिया। केर का तना हरा होकर पत्तियों की जिम्मेदारी को सम्भाल लेता है। तने पर जलरोधी पदार्थ की मोटी पर्त चढ़ी होती है, इस कारण जल की तनिक भी हानि नहीं होती। यही कारण है कि तपती रेत के समुद्र के बीच केर अकेला मुस्कराता नजर आ जाता है।
पौधों में जल का परिवहन कैसे होता है?
पौधों में जल का परिवहन (Transportation of water in plants)
पौधों में जल का परिवहन एक विशेष प्रकार के ऊतक, जिसे ज़ाइलम (Xylem) कहते हैं, के द्वारा होता है. आइये देखते हैं ज़ाइलम क्या होते हैं?
ज़ाइलम (Xylem)
ज़ाइलम (Xylem) ऊतक नलिकाओं के आकार का होता है, तथा इसका एक जाल पूरे पेड़ में फैला होता है. ज़ाइलम (Xylem) ऊतक पौधों में जल का परिवहन करता हैं. पौधे जड़ के द्वारा मिट्टी से जल को अवशोषित करते हैं. इस जल में पौधों के विकास के लिए अन्य आवश्यक खनिज तथा लवण भी विलेय के रूप में उपस्थित रहते है. जड़ों के द्वारा अवशोषित जल तथा उसमें घुले हुए अन्य आवश्यक खनिज तथा लवण, ज़ाइलम ऊतक द्वारा पौधों के विभिन्न भागों तक पहुँचाये जाते हैं. पौधों से विशेषकर रात्रि के समय पत्तियों के रंध्रों से वाष्पण की क्रिया होती है. इस वाष्पण की प्रक्रिया को ट्रांसपिरेशन (Transpiration) कहते हैं. इस वाष्पण की प्रक्रिया के कारण ज़ाइलम, नलिकाएँ में दाब कम हो जाता है. इस कम दाब के कारण एक बल उत्पन्न होता है जिसमें संतुलन बनाये रखने हेतु जड़ों से अवशोषित जल ज़ाइलम में ऊपर चढ़ने लगता है तथा पेड़ों के विभिन्न भागों तक पहुँचता है. ज़ाइलम ऊतक में जल का परिवहन एक ही ओर होता है, अर्थात ज़ाइलम ऊतक द्वारा जल को जड़ से पौधे के विभिन्न भागों तक पँहुचाया जाता है.
बायो टॉयलेट किसे कहते हैं?
ज़ाइलम (Xylem) ऊतक का निर्माण चार प्रकार की कोशिकाओं से होता है:-
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1. ज़ाइलम तन्तु (Xylem Fibres)
2. ज़ाइलम मृदूतक (Xylem Parenchyma)
3. ज़ाइलम वाहिनिकाएँ (Tracheid)
4. ज़ाइलम वाहिकाएं (Xylem Vessels)
ज़ाइलम तंतु (Xylem Fibres)
ये ज़ाइलम में पाए जाने वाली मृत दृढ़ोतक कोशिकाएँ होती है. ये लंबी, मोटी लिग्निन युक्त कोशिका भित्ती और नुकीले सिरों वाली कोशिकाएँ हैं. इनकी मात्रा द्वितीयक ज़ाइलम में अधिक होती है. यह यांत्रिक सहारा प्रदान करती है.
ज़ाइलम मृदूतक (Xylem Parenchyma)
क्या आप जानते हैं कि यह ज़ाइलम का जीवित घटक हैं. ये मृदूतकी, पतली कोशिका भित्ती वाली, अंडाकार या लम्बी कोशिकाएँ है, जो प्राथमिक और द्वितीयक ज़ाइलम दोनों में पायी जाती हैं. यह मुख्य रूप से स्टार्च और वसा को संग्रहीत करने में मदद करती है. यह मज्जा किरणों का गठन करती है, जो पानी का उसके परिधीय भागो में यानी अरीय संवहन करती है.
अर्थार्त चार घटकों में से केवल xylem parenchyma ही जीवित है और बाकी सभी भाग मृत होते हैं.
ज़ाइलम वाहिनिकाएँ (Tracheid)
ज़ाइलम वाहिनिकाएं (tracheid) पानी के परिवहन में मदद करती है. बिना पुष्प वाले पौधों में वाहिनिकाएँ (Tracheid) ही एक मात्र ऐसे ऊतक होते हैं, जो जल का परिवहन करते है. यह यांत्रिक सहारा (Mechanical Support) और लकड़ी का निर्माण भी करती है. वाहिनिकाएँ मृत कोशिकाएं होती हैं और इसकी भित्ति लिग्निन से बनी होती हैं. ये लम्बी, संकीर्ण गुहा, तथा नुकीले सिरों वाली कोशिकाएँ है. कोशिका भित्ति स्थूलन (thickening) वलयाकार (Annular), स्पाइरल (Spiral), स्कालारिफोर्म (Scalariform), जालिकावत (Reticulate), या गर्ती (Pitted) प्रकार का हो सकता है. गर्ती (Pitted) यानी इनमें गड्ढ़े पाये जाते हैं जिनके जरिए ही एक वाहिनिका से दूसरे वाहिनिका में पानी का परिवहन होता है. वाहिनिकाएं एक दूसरे के ऊपर जुड़कर लंबी पंक्ति बनाती हैं परन्तु आपस में क्रॉस भित्ति द्वारा अलग रहती है. वाहिनिकाएं (tracheid) टेरिडोफाइट, जिम्नोस्पर्म और एंजियोस्पर्मों में पाए जाते हैं.
ज़ाइलम वाहिकाएं (Xylem Vessels)
ज़ाइलम वाहिकाएं (Xylem Vessels) लम्बी, चौड़े सिरे वाली, तथा चौड़ी अवकाशिका वाली बेलनाकार तत्व हैं. ये मृत कोशिकाओं से मिलकर बनी होती हैं. ये पानी के संवहन में पाइप लाइन की तरह कार्य करती है. इनकी कोशिका भित्ति पर लिग्निन का जमाव होता हैं, और जमाव या स्थूलन (thickening) वलयाकार, स्पाइरल और जालीदार हो सकता है. कोशिका भित्ती में कई परिवेशित गर्त (Boarded Pits) होते हैं. वाहिकाओं की अंत: भित्ती छिद्रित प्लेटों के रूप में पायी जाती है. वाहिकाएं (Vessels) कठोर लकड़ी या छिद्रित लकड़ी का निर्माण करती हैं. संकीर्ण अवकाशिका या गुहा वाली वाहिकाएं (Vessels) प्रोटो ज़ाइलम में और चौड़ी अवकाशिका या गुहा वाली वाहिकाएं (Vessels) मेटा ज़ाइलम में जाती है. वाहिकाएं (Vessels) पानी के परिवहन, पादप को यांत्रिक सहारा और लकड़ी का निर्माण का कार्य करती है. ये एक निर्जीव नली है, जो पौधे की जड़ों से होती हुई प्रत्येक तने और पत्ती तक जाती है. आम तौर पर वाहिकाएं (Vessels) सभी एंजियोस्पर्म में पायी जाती हैं.
उपरोक्त लेख से ज्ञात होता है कि पौधों में जल का परिवहन कैसे होता है, ज़ाइलम ऊतक (tissue) जड़ों से पानी को पौधें के पूरे भाग में कैसे पहुँचाता है|
जल संग्राही पौधे
रेगिस्तानी जिलों बाड़मेर और जैसलमेर में यह परम्परा है कि वर्षा आने पर घर की छत पर गिरने वाले पानी को बाहर बहने नहीं दिया जाता। पानी को एकत्रित कर घर में भूमि में बने ‘टांके’ यानि एक संग्राहक में एकत्रित कर लिया जाता है। बाद के दिनों में इस एकत्रित जल को बहुत ही सावधानी से खर्च किया जाता है। जब मेरी नियुक्ति बाड़मेर में थी तो प्रति दिन एक बाल्टी पानी टांके में से दिया जाता था। प्राप्त पानी का एक भाग नहाने के काम में लाता था, मगर नहाने के काम में आए पानी को भी व्यर्थ बहने नहीं देता था। उस पानी को एकत्रित कर उसका उपयोग कमरे में पोछा लगाने या अन्य ऐसे ही किसी काम में करता था।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मानव ने वर्षाजल को एकत्रित करने व बाद में सावधानी से खर्च करने की बात भी पौधों से ही सीखी है। नागफनी, ग्वारपाठा, थोर आदि कई मांसल पौधे हैं जो रेगिस्तान में आसानी से रह लेते हैं। ये पादप वर्षा के दिनों में उपलब्ध जल को अपने तने या पत्तियों में संग्रहित कर लेते हैं। अगामी वर्षाऋतु तक इसी जल को सावधानी से खर्च करते हैं। जल के अपव्यय को रोकने के सभी उपायों को ये पादप काम में लाते हैं। सर्वाधिक जल खर्च करने वाले पादप भाग पत्तियों को ये भी त्याग देते हैं या रूपान्तरित कर लेते हैं। तना हरा होकर पत्तियों की भोजन बनाने की जिम्मेदारी सम्भाल लेता है। सभी भागों पर जलरोधी उपत्वचा का आवरण चढ़ा लिया जाता है। ऐसा लगता है कि ये पादप केवल भोजन बनाने के अलावा किसी बात पर जल खर्च नहीं करते हैं। भोजन बनाने के लिये इन पौधों को कार्बन डाइ ऑक्साइड वायुमंडल से लेनी होती है। कार्बन डाइ ऑक्साइड को अन्दर लेने के लिये रन्ध्र खोलने होते हैं। रन्ध्र खुलेंगे तो जलवाष्प्प की हानि होने की सम्भावना रहेगी। ये पौधे जल हानि की इस सम्भावना से बचने हेतु प्रकाश संश्लेषण क्रिया के रासायनिक चरणों में भी परिवर्तन कर लेते हैं। ये पौधे रात्रि में रन्ध्र खोल कर कार्बन डाइ ऑक्साइड प्राप्त करते हैं। संग्रहित कार्बन डाइ ऑक्साइड को दिन में प्रकाश उपलब्ध होने पर भोजन में बदलते हैं। सामान्य पौधे ( सी-3 पादप ) से भिन्न होने के कारण इन्हें सी-4 पादप कहते हैं। इनके इस गुण के कारण ये उन स्थानों पर आसानी से रह लेते हैं, जहाँ अन्य कोई पादप नहीं रह सकता।
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