पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन

sexual reproduction in flowering plants

पुष्प की संरचना (Structure of Flower) :

की संरचना Structure of Flower - पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
पुष्प की संरचना (Structure of Flower)

पुष्प की संरचना-आवृतबीजी पौधो का विशिष्ट लक्षण उसमें पुष्पो का उत्पन्न होना है।

एक पुष्प में चार चक्र पाये जाते हैं:-

  1. बाह्यदलपुंज (Calyx)
  2. दलपुंज (Corolla)
  3. पुमंग (fAndrocieum)
  4. जायांग (Gynoceium)

बाह्यदलपुंज तथा दलपुंज सहायक चक्र कहलाते है, जबकि पुमंग और जायांग आवश्यक चक्र कहलाते है क्योंकि पुकेंसर (यानि पुमंग) और जायांग प्रत्यक्ष रूप से लैंगिक जनन में सहायक होते हैं। इसीलिए इन्हें आवश्यक चक्र कहा जाता है।

(i) बाह्यदल पुंज (Calyx)- यह पुष्प का प्रथम चक्र होता है, जो अधिकांशतः हरे रंग का होता है।

बाह्‌यदलपुंज अनेक बाह्यदलो (Sepal) से मिलकर बना होता है।

(ii) दलपुंज (corolla) –यह पुष्प का दूसरा चक्र है जो अनेक दलो (Petals) से मिलकर बना होता है।

इसका महत्त्वपूर्ण कार्य परागण में कीटों को अपनी तरफ आकर्षित करने का होता है ।

(iii) पुमंग (Androecium)पुमंग पुष्प का तीसरा चक्र है, यह एक या एक से अधिक पुकेसरों (stamens) से मिलकर बना होता है। पुमंग पुष्प का नर भाग होता है।

एक पुंकेसर के दो भाग होते हैं:-

  1. परागकोष
  2. पुतन्तु (filament)

(iv) जायांग (Guynoecium) यह पुष्प का चौथा व आखिरी चक्र है। यह पुष्प का मादा भाग होता है। जायांग एक या एक से अधिक स्त्रीकेसरो (Carpel) से मिलकर बने होते है। इसके तीन भाग होते है।

  1. वर्तिकाग्र (stigma)
  2. वर्तिका (style)
  3. अण्डाशय (Ovary)

पुष्पी पौधो मे लैंगिक जनन (Sexual Reproduction in Flowering Plants)

  • आवृतबीजी पौधो मे पुष्प उसका लैंगिक अंग होता है।
  • पुष्प मे नर जननांगों के रूप मे पुकेंसर तथा मादा जननांग के रूप में स्त्रीकेसर का निर्माण होता है।
  • पुकेंसर व जायांग के अन्दर अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप क्रमशः परागकण व महाबीजाणु का निर्माण होता है।
  • परागकण से नर युग्मकोद भिद (male game tophhyte) एवं महाबीजाणु से मादा युग्मको भिद(female gametophyte) का निर्माण होता है।
  • नर युग्मकोभिद से नर युग्मक ( Female gamatis) बनता है। मादा युग्मकोद्‌भिद में अण्ड कोशिका (egg cell) बनती है।
  • नर युग्मक एवं अण्ड कोशिका के संयुग्मन से युग्मनज (zygote) बनता है।
  • निषेचन पश्चात् युग्मनज युक्त बीजाण्ड को बीज कहते हैं। बीज के अंकुरण से नये पौधे का निर्माण निर्माण होता है।

ये सभी घटनाएँ क्रमिक रूप से तीन अवस्थाओं में पूर्ण होती है।

  1. निषेचन पूर्व घटना
  2. निषेचन
  3. निषेचन पश्चू घटना

पुमंग(Androecium) :– पुमंग पुष्प का नर जननांग है। पुमंग की इकाई को पुंकेसर या लघुबीजाणुपर्ण कहते है | आवृतबीजी पुष्पो का पराग कोष दो पालियो वाला होता है, अत: आवृतबीजी परागकोष द्विपालित संरचना है। प्रत्येक परागकोष पालि में दो प्रकोष्ठ होते हैं, इन्हें परागपुट या लघुबीजाणुधानी कहते हैं। लघुबीजधानियो के अन्दर परागकणों या लघुबीजाणुओं का निर्माण होता है

पराग कोष की संरचना:– एक परागकोष द्विपालित होता है, प्रत्येक मे दो कोष्ठ होता है। पूर्ण परागकोष एक चतुष्कोणीय संरचना होती है। इसके चारो कोनो पर एक लघुबीजाणुधानी होती हैं। लघुवीजाणुधानियों में लघुबीजाणुओ अर्थात परागकण का निर्माण होता है।

कोष की संरचना - पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
पराग कोष की संरचना

लघुबीजाणुधानी संरचना: लघुबीजाणुधानी नि० लि० चार परतों से मिलकर बनी होती है:-

  1. बाह्य त्वचा (epidermis)- यह सबसे बाहरी एक परतीय चपटी सतह है।
  2. अंतस्थीसियम- यह दूसरी एक परतीय होती है। ये परागकोष के स्फूटन मे सहायक होती है।
  3. मध्यपरत – यह परत 3-5 स्तरीय होती है।
  4. टेपीटम – ये पिरामिड आकार की एक स्तरीय परत है।
संरचना - पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
लघुबीजाणुधानी संरचना

टेपीटम के कार्य :-

  1. यह विकसित हो रहे लघुबीजाणु को पोषण प्रदान करता है।
  2. यह पराग किट का निर्माण भी करता है।
  3. टेपीटम एक स्पोरो पालेनिन नामक प्रोटीन स्त्रावित करता है, जो परागकण को वर्षा, धूल, सर्दी, गर्मी आदि से सुरक्षित रखता है।
  4. यह केलेस एन्जाइम का स्त्रावण करके लघुवीजाणु के स्फुटन मे सहायक होता है।

लघुबीजाणु जनन (Microsporogenesis)

लघुबीजाणुधानी के परिपक्व होने पर :-

  1. बीजाणुजनन ऊतक समसूत्री विभाजन द्वारा संख्या में वृद्धि करता है। जिससे प्राप्त प्रत्येक द्विगुणित कोशिका लघुबीजाणु मातृ कोशिका कहलाती है।
  2. लघुबीजाणु मातृ कोशिका अर्द्धसूत्री विभाजन करके चार लघुबीजाणु का निर्माण करती है।
  3. चारो लघुबीजाणु आपस में जुड़े रहते हैं, उन्हें लघुबीजाणु चतुष्क कहते है।
  4. यही चतुष्क परिपक्व होकर अलग- अलग हो जाते हैं, और चार परागकणों का निर्माण करते है।

परागकोष का स्फुटन

 

का स्फुटन - पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
परागकोष का स्फुटन
  • परागकोष मे कुल चार स्तर पाये जाते हैं – बाह्य स्तर, अन्तः स्तर, मध्य स्तर व टेपीटम |
  • परागकोष के परिपक्व होने पर मध्य स्तर व टेपीटम नष्ट हो जाते हैं |
  • स्टोमियम वाले स्थान पर अन्तः स्तर पतली होती है। स्टोमियम स्थान पर उपस्थित अन्तः स्तर की कोशिकाएँ जल हानि करके सिकुड जाती है। जिससे बाह्य स्तर पर तनाव बढ़ता है और परागकोष स्टोमियम स्थान से फट जाती है ।
  • जिससे परागकोष से परागकण स्वतंत्र हो जाते है।

परागकण की संरचना

परागकण:- परागकण नर युग्मकोद्‌भिद की प्रथम कोशिका होती है। परागकण एक अगुणित कोशिका होती है, इसमें दो भित्तियाँ पाई जाती है :-

  1. बाहरी भित्ति – बाह्य चोल
  2. आंतरिक भित्ति – अन्त: चोल

बाह्य चोल- बाह्य चोल एक अत्यधिक प्रतिरोधक वसीय पदार्थ स्पोरोपालेनिन से मिलकर बना होता है। स्पोरोपालेनिन पर किसी भी ताप, अम्ल, क्षार आदि का प्रभाव नहीं पड़ता। यही कारण है कि परागकणों का जैविक अपघटन नही होता।

अन्त: चोल- अन्त: चोल पेक्टोसेलुलोज से मिलकर बनी होती है। अन्तः चोल से ही परागनलिका का निर्माण होता है।

परागकणों का परागकोष से निकलने से पहले इनके केन्द्रक मे विभाजन हो जाता है, और दो केन्द्रको का निर्माण होता है (1) वर्धी केन्द्रक (2) जनन केन्द्रक। फिर कोशिका द्रव्य का विभाजन होता है, और वर्धी कोशिका और जनन कोशिका बनती है।

  • बाह्य चोल में जगह-जगह छिद्र पाये जाते हैं जिन्हें जनन छिद्र कहते हैं। जिससे परागनलिका निकलती है।
  • द्विकोशिकीय अवस्था मे परागकण परागकोष से मुक्त होते हैं और परागण की क्रिया द्वारा मादा पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते हैं।
  • वतिकाग्र पर पहुँचकर परागकण का अंकुरण होता है तथा परागकण के जनन छिद्र के माध्यम से अन्त: चोल द्वारा परागनलिका का निर्माण होता है।
  • यह पराग नलिका बढ़ते हुए बीजाण्ड मे प्रवेश करती है।
  • जनन कोशिका पराग नालिका के माध्यम से बीजाण्ड मे पहुंचता है। जनन कोशिका परागनलिका रास्ते में ही समसूत्री द्वारा विभाजित होकर 2 नर युग्मक का निर्माण करती है।

जायांग (Guynociusm) : जायांग पुष्प का मादा भाग होता है जिसकी इकाई को स्त्रीकेसर या अण्डप कहते हैं। प्रत्येक स्त्रीकेसर में तीन संरचना होती है – वतिकाग्र, वर्तिका और अण्डाशय ।

स्त्रीकेसर का शीर्ष भाग वतिकाग्र तथा आधार भाग अण्डाशय कहलाता है, वतिकाग्र और अण्डाशय को जोड़ने वाली नलि को वर्तिका कहते हैं।

बीजाण्ड की संरचना

प्रत्येक बीजाण्ड एक पतली संरचना द्वारा अण्डाशय से जुडा होता है जिसे बीजाण्डवृन्त (Funicle) कहते हैं।

बीजाण्ड एक या दो आवरणों द्वारा घिरा होता है बाहरी आवरण को बाह्य अध्यावरण तथा आन्तरिक आवरण को अन्तः अध्यावरण कहते है।

अध्यावरण बीजाण्ड के एक स्थान पर अपूर्ण होता होता है, बीजाण्डद्वार कहते हैं।

बीजाण्ड का वह भाग जहाँ से अध्यावरण निकलता है, निभाग (Chalaza) कहलाता है। जो हमेशा बीजाण्डद्वार के विपरीत दिशा में होता है।

बीजाण्ड के अन्दर मृदू तक कोशिकाओं का समूह होता है, जिसे बीजाण्डकाय कहते है।

बीजाण्डकाय के मध्य मे एक थैली नुमा संरचना होती है, जिसे भ्रूणकोष कहते है।

भ्रूणकोष मे तीन कोशिकाएँ निभाग की तरफ होती है, जिसे प्रतिमुख कोशिका कहते है।

भ्रूणकोष के मध्य में दो कोशिकाएँ पाई जाती है, जिसे द्वितीयक केन्द्रक कहते हैं।

तीन कोशिकाएं प्रायः बीजाण्डद्वार की तरफ होती है, जिनमें से मध्यकोशिका को अण्ड कोशिका तथा अगल बगल की कोशिका को सहायक कोशिका कहते –

बीजाण्ड का परिवर्धन व गुरुबीजाणुजनन:-

बीजाण्ड तथा भ्रूणपोष की परिवर्धन की प्रक्रिया को ही गुरुबीजाणुजनन कहते हैं। बीजाण्ड काय मे उपस्थित मृदूतक कोशिकाओ मे से एक अर्धस्तरीय कोशिका आकार में बड़ी हो जाती है इसका कोशिकाद्रव्य गाढा तथा केन्द्रक बड़ा हो जाता है। इसे प्रपशू कोशिका कहते हैं।

प्रपशू कोशिका मे समसूत्री विभाजन होता है, जिससे बाहर की तरफ एक प्राथमिक भित्तिय कोशिका का निर्माण होता है तथा भीतर की तरफ बीजाणुजनन कोशिका का निर्माण होता है।

बीजाणुजनन कोशिका बिना विभाजन किए ही गुरुबीजाणु मातृ कोशिका की तरह कार्य करने लगता है।

गुरुबीजाणुमातृ कोशिका मे अर्द्धसूत्री विभाजन होता है, जिससे चार अगुणित गुरु बीजाणुओ का निर्माण होता है। इनमें से तीन अगुणित गुरुबीजाणु जल्दी ही नष्ट हो जाते हैं।

एक गुरुबीजाणु क्रियाशील होता है, क्रियाशील गुरुबीजाणु ही भ्रूणकोष या मादा युग्म कोद्‌भिद में परिवर्धित होता है।

भ्रूणकोष या मादा युग्मकोद्‌भिद का विकास:-

  • क्रियाशील गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्‌भिद की प्राथमिक कोशिका है, यह गुरुबीजाणु वृद्धि कर बीजाण्ड का अधिकांश भाग घेर लेता है।
  • इसका केन्द्रक समसूत्री विभाजन द्वारा दो केन्द्रक में विभाजित हो जाता है और दोनो केन्द्रक दोनो ध्रुवो पर एकत्रित हो जाते हैं।
  • पुनः इन केन्द्रको मे समसूत्री विभाजन होता है और दो से चार केन्द्रक बन जाते हैं। पुन: चारो केन्द्रको मे समसूत्री विभाजन होता है और आठ केन्द्रक का निर्माण होता है।
  • इनमें से 4 केन्द्रक निभाग तथा 4 केन्द्रक बीजाण्डद्वार की ओर स्थित होते हैं।
  • एक केन्द्रक निभाग की ओर से तथा एक केन्द्रक बीजाण्डद्वार की ओर से मध्य मे आकर स्थित हो जाता है, जिसे ध्रुवीय केन्द्रक कहते है।
  • 3 केन्द्रक जो निभाग की ओर स्थित होते है, कोशिकाद्रव्य का विभाजन करके प्रतिमुख कोशिका कहलाते है।
  • 3 केन्द्रक जो बीजाण्डद्वार की ओर स्थित होते हैं कोशिका द्रव्य का विभाजन करके मध्य की कोशिका अण्ड कोशिका या मादा युग्मक कहलाती है तथा अगल-बगल की कोशिका सहायक कोशिका कहलाती है।
  • ध्रुवीय केन्द्रक संयुक्त होकर द्वितीयक केन्द्रक कहलाते हैं।
  • परिपक्व भ्रूणकोष 7 कोशिकीय व 8 केन्द्रकीय होता है।

परागकण(Pollination)

परागकण(Pollination):- परागकणो का परिपक्व परागकोष से निकलकर मादा पुष्प के वतिकाग्र पर पहुचना परागकण कहलाता है।

परागकण के प्रकार:-

  • स्व परागण(Self Pollination)
  • पर परागण

(1) स्व परागण :

जब किसी पुष्प के परागकोष से परागकण निकलकर उसी पुष्प के वतिकाग्र या उसी पौधे के किसी अन्य पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते है, तो क्रिया को स्व परागण कहते है |

स्व परागण दो प्रकार से होता है:-

  1. स्वयुग्मन परागण
  2. राजात पुष्पी परागण
  • स्वयुग्मन परागण:- जब परागकण किसी पुष्प से निकलकर उसी पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते हैं, तो इस क्रिया को स्वयुग्मन कहते हैं। Ex. – मटर, टमाटर आदि ।
  • सजातपुष्पी पुरागण : जब किसी पुष्प के परागकण उसी पौधे के किसी अन्य पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते है, तो उसे सजात पुष्पी परागण कहते है। Ex. – मक्का |

स्व परागण के लाभ:

  1. स्व परागण की प्रक्रिया निश्चित होती है।
  2. स्व. परागण से उत्पन्न बीज शुद्ध वंश क्रम वाले होते हैं।

स्व परागण की हानियाँ :

  • स्व परागण से उत्पन्न पौधे मे विभिन्नताएँ नहीं आती है।
  • स्व परागण से उत्पन्न पौधे मे रोग प्रतिरोधक क्षमता कम पाई जाती है।

(2) पर परागण :-

इस क्रिया में एक पुष्प के परागकण उसी जाति के अन्य पौधो के पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते हैं, इस क्रिया को पर परागण कहते है।

पर परागण की विधियाँ (Methods of cross pollination)

परागकणों को वतिकाग्र पर पहुंचने के लिए साधन या माध्यम की आवश्यकता होती है, इन साधनों को कर्मक कहते हैं।

ये कर्मक मुख्यता पाँच प्रकार के हो सकते हैं:-

  • जल द्वारा परागण:- जब परागण की क्रिया जल के माध्यम से होती है, तो उसे जल द्वारा परागण कहते हैं | Ex. – वैलिसनेरिया ।
  • वायु द्वारा परागण:- जब परागण की क्रिया वायु के माध्यम से होती है, तो उसे वायु द्वारा परागण कहते हैं | Ex. – मक्का, गेहूँ आदि ।
  • कीट द्वारा परागण:- जब परागण की क्रिया कीट द्वारा होती है, तो उसे कीट परागण कहते है। Ex. – मधुमक्खी, तितली आदि।
  • पक्षी द्वारा परागण: जब परागण की क्रिया पक्षी द्वारा होती है, तो उसे पक्षी परागण कहते हैं। Ex- बिग्नोनिया।
  • चमगादड द्वारा परागण:- जब परागण की क्रिया चमगादड द्वारा होती है तो उसे चमगादड द्वारा परागण कहते है। – पर परागण

पर परागण के लाभ:-

  • (i) पर परागण द्वारा उत्पन्न बीज बड़े, स्वस्थ व अच्छी नस्ल वाले होते हैं।
  • (ii) पर परागण से बनने वाले फल बडे व स्वादिष्ट होते हैं।

पर परागण से हानियाँ:

  • (i) अधिक परागकणो का व्यर्थ हो जाना ।
  • (ii) इसमे सदैव साधन की आवश्यकता होती है।

कृत्रिम संकरण (Artificial Hybridization)

मनुष्य द्वारा दो अलग- अलग पौधे के लक्षणों को लेकर सर्वश्रेष्ठ लक्षणों वाले पौधे को बनाया जाता है|

कृत्रिम संकरण के दो आवश्यक प्रक्रम होते है

  • (i) विपुसन (Emasculation)
  • (ii) थैलीकरण (Bagging)

विपुंसन

द्विलिंगी पुष्प मे कलिका आवस्था में ही चिमटी की सहायता से उस पुष्प के परागकोष को निकाल देना, विपुंसन कहलाता है । विपुंसन की प्रक्रिया केवल द्विलिंगी पुष्पों में अपनाई जाती है।

थैली करण

इस प्रक्रिया में बंध्याकृत पुष्प के वतिकाग्र को छिद्रित थैली से ढक देते हैं। इससे अन्य पुष्प के परागकण इसपे नहीं पहुंच पाते । पुष्प के परिपक्व हो पर थैली को हटा दिया जाता है, इसे ही थैलीकरण कहते हैं।

निषेचन (Fertilization)

नर युग्मक एवं मादा युग्मक के संयोजन की क्रिया को निषेचन कहते हैं।

पुष्पी पौधों में आन्तरिक निषेचन होता है।

परागकणो का अंकुरण एवं परागनलिका का निर्माण

  • जब परागकण संगत पुष्प के वतिकाग्र पर पहुंचते है तब इनका अंकुरण होता है और पराग नलिका का निर्माण होता है।
  • ये परागनलिका आगे बढ़ते हुए बीजाण्ड में प्रवेश करती है। पराग नालिका के रास्ते में ही जनन कोशिका विभाजित हो कर दो नर युग्मक का निर्माण करती है।
  • बीजाण्ड में एक थैलीनुमा संरचना पाई जाती है जिसे भ्रूणकोष कहते हैं। भ्रूणकोष मे ही अण्ड कोशिका या मादा युग्मक पाया जाता है।

परागनलिका का भ्रूण कोष मे प्रवेश

परागनलिका मुख्यता तीन स्थानों से बीजाण्ड या भ्रूणकोष में प्रवेश कर सकती है:-

  1. निभाग द्वारा परागनलिका का प्रवेश (Chalazogamy)
  2. अध्यावरण द्वारा परागनलिका का प्रवेश (Mesogamy)
  3. बीजाण्डद्वार द्वारा परागनलिका का प्रवेश (Porogamy)

दोहरा निषेचन

  • नर जनन कोशिका में परागनालिका के अन्दर ही समसूत्री विभाजन होता है जिससे दो नर युग्मक का निर्माण होता है।
  • इनमें से एक नर-युग्मक मादा युग्मक से क्रिया करके युग्मनज का निर्माण करता है जो विकसित होकर भ्रूण बन जाता है तथा दूसरा नर युग्मक दो ध्रुवीय केन्द्रको से क्रिया कर लेता है जिसे
  • प्राथमिक भ्रूणपोष केन्द्रक का निर्माण होता है, यही बाद में भ्रूणपोष बन जाता है, इस सम्पूर्ण क्रिया को ही दोहरा या द्विनिषेचन कहते हैं।

निषेचन + त्रिसंलयन = द्विनिषेचन

निषेचन पश्च घटनाए

निषेचन के पश्चात् निम्नलिखित घटनाएं होती है –

  1. भ्रूणपोष का विकास
  2. भ्रूण एवं इसका विकास
  3. बीज व फल का निर्माण

भ्रूणपोष: – जिस थैले जैसी संरचना में भ्रूण बनता है उसे भ्रूणकोष कहते है, तथा भ्रूण को पोषण प्रदान करने वाली त्रिगुणित कोशिका को भ्रूणपोष कहते हैं।

  1. कोशिकीय भूषपोष (Cellular Endosperm)
  2. केन्द्रकीय भ्रूणपोष (Nuclear Endosperm)
  3. हेलोबियल भ्रूणपोष(Helobial Endosperm)

भ्रूण एवं इसका विकास

  • द्विबीजपत्री में भ्रूण का विकास
  • एकबीजपत्री मे भ्रूण का विकास

द्विबीजपत्री में भ्रूण का विकास

युग्मनज (Zygote) मे अनुप्रस्थ विभाजन के फलस्वरूप दो कोशिका का निर्माण होता है एक कोशिका निभाग की ओर स्थित होती है जिसे अग्रस्थ कोशिका तथा दूसरी कोशिका जो बीजाण्डद्वार की ओर स्थित होती है, उसे आधारी कोशिका कहते है।

अग्रस्थ कोशिका मे उदग्र विभाजन तथा आधारी कोशिका मे अनुप्रस्थ विभाजन होता है।

अब अग्रस्थ कोशिका मे दो अनुप्रस्थ विभाजन तथा आधारी कोशिका में (6-10) अनुप्रस्थ विभाजन होता है।

आधारी कोशिका में (6-10) अनुप्रस्थ विभाजन के पश्चात् प्राप्त सम्पूर्ण कोशिका को निलम्बक कहते है। निलम्बक की निचली कोशिका चूषकांग तथा ऊपरी कोशिका स्फीतिका कहलाती है।

अग्रस्थ कोशिका में दो अनुप्रस्थ विभाजन के पश्चात् प्राप्त कोशिकाओं में से स्फीतिका के पास उपस्थित कोशिकाओं को हाइपोबेसल (Hypobasal) तथा अग्रस्थ कोशिका के ऊपरी कोशिकों को इपीनेतल (Epibasal) कहते हैं।

Hypobasal कोशिका से मुलाकुर का निर्माण होता है, फिर मूलांकुर से मूल या जड़ का निर्माण होता है।

Epibasal से बीजपत्र एवं प्राकुंर का निर्माण होता ही है। प्राकुर से तना पत्ती का निर्माण होता है|

”इस प्रकार द्विबीजपत्री में भ्रूण का विकास होता है, और नया पौधा बनता है। “

(Note) द्विबीजपत्री की तरह ही एक बीजपत्ती पादपों में भी भ्रूण का विकास होता है, परन्तु एकबीजपत्री पादपो में केवल एक बीज पत्री का निर्माण होता है ।

बीज एवं फल का निर्माण

बीज का निर्माण – द्विनिषेचन क्रिया के फलस्वरूप बीजाण्ड मे अनेक परिवर्तन होते हैं, जिसके फलस्वरूप बीजाण्ड से बीज का निर्माण होता है, बीजाण्ड के दोनो आवरण बीजावरण का निर्माण करते है। बीजपत्र या भ्रूणपोष मे, भोजन संचित हो जाता है। इसमें पानी की मात्रा धीरे-धीरे कम हो जाती है और भ्रूण शूपता अवस्था में चला जाता है, इस प्रकार बीजावरण से घिरी संरचना को बीज कहते हैं|

फल का निर्माण – फल एक परिपक्व अण्डाशय है जिस समय बीज का निर्माण होता है, उसी समय अण्डाश्य फूलकर व रसीला बडा फल का निर्माण होता है, अण्डाश्य की भित्ति से फल भित्ति का निर्माण होता है। जब फल के निर्माण में केवल अण्डाश्य भाग लेता है तो इस प्रकार के फल को सत्य फल कहते हैं। जैसे- आम |

निषेचन के बाद पुष्प चक्रो मे निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं

  • बाह्य दलपुंज – अलग हो जाते हैं तथा कुछ पौधे के फलो में लगे रहते है।
  • दलपुंज – सूखकर निकल जाते हैं।
  • पुमंग – घुमंग भी सूखकर नष्ट हो जाते हैं।
  • जायांग – स्त्रीकेसर के वतिकाग्र, वर्तिका सूख जाते हैं तथा अण्डाशय फल एवं बीजाण्ड बीज का निर्माण करते हैं।

अनिषेक जनन या फलन

वह क्रिया जिसमे बिना निषेचन के ही फल का विकास हो जाता है, अनिषेक जनन या अनिषेक फलन कहलाता है इस प्रकार से बने फल मे बीज नही होता है। जैसे = अंगूर केला आदि ।

असंगजनन

जब बिना निषेचन के ही बीज का निर्माण हो जाता है, असंगजनन कहलाता है। इसमे न तो अर्द्धसूत्री विभाजन होगा और न ही भ्रूण का निर्माण | जैसे- आलू, गन्ना |

बहु भ्रूणता

Zygote कई विभाजनो के द्वारा एक से अधिक भ्रूण का निर्माण करते हैं। इसके फलस्वरूप अनेक बीजो का निर्माण होता है। जिसे बहुभ्रूणता कहते हैं जैसे = संतरा, नींबू |

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