जीवों में जनन

जीवन अवधि (Life Period) –

किसी जीव का उसके जन्म से लेकर उसकी प्राकृतिक मृत्यु तक का समय उसका जीवनकाल या जीवन अवधि कहलाता है।

प्रत्येक जीव का जीवनकाल अलग- अलग होता है, जैसे मनुष्य एक जीव है जिसका जीवनकाल 70-75 वर्ष माना गया है। इसी प्रकार अलगअलग जीवों का जीवनकाल अलग-अलग होता है।

कुछ जीवो के जीवनकाल निम्न है।

कुछ जंतुओ के जीवनकाल

जीव जीवनकाल
हाथी 65-70 वर्ष
कुत्ता 20 – 25 वर्ष
तितली 1-2 वर्ष
गाय 20 – 25 वर्ष
घोड़ा 50-60 वर्ष
कछुआ 100 – 150 वर्ष
कौआ 15 वर्ष

कुछ पौधों के जीवनकाल

गुलाब 5-7 वर्ष
केला 25 वर्ष
धान 3-4 महीना
बरगद 200 वर्ष
पीपल 1500 वर्ष
आम 100 वर्ष
जामुन 60 वर्ष

जनन (Reproduction)-

जनन द्वारा कोई जीवधारी (वनस्पति या प्राणी) अपने ही सदृश किसी दूसरे जीव को जन्म देकर अपनी जाति की वृद्धि करता है। जन्म देने की इस क्रिया को जनन कहते हैं।

जनन का अर्थ है, अपने समान संतान उत्पन्न करना जनन कहलाता है।

जनन के उद्देश्य (Purpose of Reproduction)

जनन जीवो की एक प्रमुख जैविक क्रिया है, जिसके उद्देश्य निम्न है:-

  • जनन के माध्यम से ही जाति की निरंतरता सदैव बनी रहती है।
  • जीव जनन करते है और अपने समान संतान उत्पन्न करते हैं; जिससे उनकी संख्या में वृद्धि होती है।
  • जनन से विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं और विभिन्नताओं सें विकास होता है।
  • जनन के द्वारा ही किसी जीव की मृत्यु होने पर भी उसकी जाति का आस्तित्व बना रहता है।

जनन के प्रकार – यह निम्न प्रकार के होते हैं:-

  1. कायिक / वर्धी जनन (Vegetative Reproduction)
  2. अलैगिक जनन (Asexual Reproduction)
  3. लैंगिक जनन (Sexual Reproduction)

कायिक जनन (Vegetative Reproduction)

जब किसी पौधे मे जड़, तने, पत्ती के द्वारा नये पौधे को जन्म दिया जाता है। तो उसे हम कायिक जनन/वर्धी जनन कहते है।

नये पौधे आकारकी व अनुवंशिकी रूप से अपने मातृ पौधे के एकदम समान होते हैं व इनके गुण अपने मातृ पौधे के एकदम समान होता है।

मातृ पौधे का वह भाग जो नये पौधे को बनाता है उसे कायिक प्रवर्ध कहते हैं, जो जड़, तनां व पत्ती इनमें से कोई भी हो सकता है।

कायिक जनन के प्रकार

  • प्राकृतिक कायिक जनन
  • कृत्रिम कायिक जनन

प्राकृतिक कायिक जनन (Natural Vegetative Reproduction)

प्राकृतिक कायिक जनन मे स्वतः ही पौधे का रूपांतरित भाग या कायिक प्रवर्ध अंकुरित होकर नये पौधे को जन्म देता है। प्राकृतिक कायिक जनन की विधियाँ निम्न है।

(1).जडो द्वारा कायिक जनन – जब कोई पौधा जडो द्वारा अपने समान नये पौधे को जन्म देता है तो उसे हम जड़ो द्वारा होने वाला कायिक जनन कहते हैं।

जैसे – परवल मे (Trichosomthes), शकरकन्द (Imomea Batatas), सतावर पौधे मे (Asparagus plant) ,

(2). तनो द्वारा होने वाला कायिक जनन – जब किसी पौधे में तने के द्वारा अपने समान नये पौधे को उत्पन्न किया जाता है, तो उसे तने द्वारा होने वाला कायिक जनन कहते है ।

जैसे – अदरक (Ginger), हल्दी (Turmeric), आलू (Potato) आदि।

(3). पत्ती द्वारा होने वाला कायिक जनन- जब किसी पौधे में पत्ती के द्वारा अपने समान नये पौधे को उत्पन्न किया जाता है तो इसे पत्ती द्वारा होने वाला कायिक जनन कहते हैं।

जैसे-अजूबा मे , बिगोनिय पौधे मे।

कृत्रिम कायिक जनन (Artificial Vegetative Reproduction)

पौधों में कायिक जनन मनुष्यों द्वारा विभिन्न तरीको से कराया जाता है अतः इस प्रकार से कायिक जनन जो मनुष्य द्वारा कराया जाता है कृत्रिम कायिक जनन कहलाता है।

कृत्रिम कायिक जनन की विधियाँ :

(1). कलम लगाना – इस प्रक्रिया में पौधे की छोटी-छोटी टहनियों को काट लिया जाता है। परन्तु इस बात का ध्यान रखना होता है कि इन कटी हुई टहनियों पर कक्षस्य कलिका होना अनिवार्य है। क्योंकि कक्षस्य कलिका से ही नये पौधे का निर्माण होता है, यह टहनी ही कलम कहलाती है। इन कटे हुए टहनियों को मृदा में आधा रोप दिया जाता है जिससे कुछ समय पश्चात् नया पौधा विकसित होता है। कलम लगाने की प्रक्रिया कई पौधे मे की जा सकती है। जैसे- गुलाब, गुडहल, अंगूर, नीबू आदि ।

(2). दाब लगाना- इस क्रिया में मातृ पौधे के तने की शाखा को मृदा में इस प्रकार से गाड दिया जाता है, कि इसका अग्र भाग वायु मे होता है। दबे हुए भाग से कुछ समय पश्चात् जड़े निकलती है इस तने या भाग को मातृ पौधे से अलग कर दिया जाता है और इसे स्वतंत्र पौधे के रूप में विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह प्रक्रिया अंगूर, स्ट्राबेरी जैसे पौधे में अपनाई जाती है।

(3).रोपण:- इस विधि द्वारा पौधों की उत्तम या उच्च किस्म विकसित की जा सकती है। इसमें एक ही जाति के अच्छे किस्म वाले पौधे के कलम को दूसरे सामान्य या निम्न किस्म वाले पौधे के स्कंद पर लगा दिया जाता है। (कलम उच्च किस्म के पौधे की तथा स्कंद निम्न किस्म के पौधे की है) इन दोनो पौधो को पट्टी से इस प्रकार से जोड़ा जाता है कि दोनों एक ही पौधे के रूप में विकसित होते हैं। इस प्रक्रिया को ही रोपण कहते हैं। लगभग 4-5 सप्ताह के बाद उस जोड वाले स्थान से उस पट्टी को हटा दिया जाता है। इस प्रकार से प्राप्त पौधे जिसकी जड़े तो स्कंद की होगी परंतु उसका मुख्य तना, फल, फूल आदि उच्च किस्म वाले पौधे यानि कलम की होती है। यह विधि आम, नींबू, सेब आदि में अपनाई जाती है।

(4)गूटी बांधना यह दाब लगाने की विधि का ही परिवर्तित रूप है। इस विधि का प्रयोग वृक्षों की अधिक ऊँचाई पर स्थित शाखाओं पर किया जाता है यहाँ पर दाब विधि का प्रयोग नहीं हो पाता। इसमे वृक्ष की एक स्वस्थ शाखा के बीच से चाकू द्वारा छाल हटा देते हैं। कटे हुए भाग पर गीली मिट्टी लपेटकर मोटे कपड़े या टाट द्वारा बांध देते हैं। इसे गूटी कहते हैं। कुछ दिनो पश्चात् करे भाग से अपस्थानिक जड़े निकलने लगती है। पर्याप्त जड़े निकलने पर, जड़ के पीछे से शाखा को काटकर अलग कर लिया जाता है। यह शाखा वृद्धि करके एक-नया पौधा बनाती है। लीची, नीबू आदि में यह विधि अपनाई जाती है।

में जनन - जीवों में जनन
जीवों में जनन

अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)

अलैंगिक जनन अलैंगिक जनन की क्रिया से उत्पन्न संतान से एकदम अपने जनक के समान होती है अर्थात अपने जनक का क्लोन होती है। इसीलिए अलैगिक जनन को एकल जीव जनन भी कहते हैं। .

अलैंगिक जनन की विधियाॅ (Method of Asexual Reproduction):-

  1. द्विविखण्डन (Binary fission)
  2. बीजाणुजनन (sporilation)
  3. मुकुलन (Budding)
  4. क़लिका (Gemmules)
  5. खंडीभवन (fragmentation)
  6. पुनरुदभवन (Regeneration)

(1) द्विविखण्डन या द्विविभाजन (Binary Fission) :- इस विधि में प्राय: जनन के समय जनक का शरीर दो बराबर भागो मे समसूत्री विभाजन द्वारा बटकर दो नये संतति जीव का निर्माण करता है। इसी को द्विविभाजन द्वारा अलैगिक जनन कहते हैं।

यह प्राय: एक कोशिकीय जीवों में होता है।

जैसे- अमीबा, युग्लीना |

(2) बीजाणुजनन (sporulation) :- इस विधि द्वारा जनन के समय जीवो की कोशिका मे या बाहय भाग पर एककोशिकीय पतली भित्ति (आवरण) युक्त संरचना का निर्माण होता है जिसे बीजाणु कहते है। यह बीजाणु कुछ समय बाद जनक कोशिका या पौधे से अलग होकर विभिन्न स्थानों पर फैलकर नये जीव का निर्माण करते है। इसे ही बीजाणुजनन कहते है। जैसे- क्लैमिडोमोनास शैवाल, पेनिसिलियम कवक |

(3) मुकुलन (Budding):- इस प्रकार का विभाजन यीस्ट में पाया जाता है। इस विधि मे यीस्ट कोशिका मे बाह्य भाग पर जनन के समय सूक्ष्म गोलाकार कई संरचनाएँ बनती है, जिसे मुकुल कहते है। यही मुकुल (Bud) यीस्ट से अलग होकर अनुकूल समय आने पर एक नये यीस्ट में बदल जाता है।

(4) कलिका (Gemmules) :- जब किसी पौधे मे पत्ती या तने के अग्र भाग पर बहुकोशिकीय हरे रंग की गोलाकार संरचनाए बनती है, तो उसे कलिका कहते हैं और यही कलिका मातृ पौधे से अलग होकर अनुकूल समय आने पर नये पौधे के रूप में बदल जाता है।

जैसे-फ्लुनेरिया पौधे मे |

(5) खण्डीभवन (fragmentation) :- इस विधि मे बहुकोशिकीय जनक जन्तु का शरीर दो या अधिक खण्डो मे स्वतः टूट जाता है, और प्रत्येक खण्ड अनुकूल समय आने पर एक नये पौधे या जीव में बदल जाते है।

जैसे -स्पाइरोगाइरा शैवाल, यूलोथिक्स शैवाल

(6) पुनरुद्‌भवन (Regeneration) :- कुछ जीवों मे पुनरुद्‌भवन की असीम क्षमता पाई जाती है, जैसे प्लेनेरिया, स्पंज, हाइड्रा व अमीबा | यदि इन जीवो का शरीर कई टुकडो में विभाजित कर दिया जाये और वे प्रत्येक टुकडे जिसमे केन्द्रक का अंश उपस्थित होता है, वे टुकडे पुनः विभाजन द्वारा पूर्ण शरीर का निर्माण कर सकते है। इसी प्रक्रिया को पुनरुद्‌भवन कहा जाता है ।

अलैगिक जनन के लाभ:-

  1. इस विधि द्वारा उत्पन्न संतान आनुवंशिकी व आकारकी मे जनक के समान होती है।
  2. इस विधि द्वारा उत्पन्न संतान में गुणसूत्रों की सं० जनक के गुणसूत्रों की संख्या के समान होती है।
  3. इसमे जनन के लिए केवल एक जीव की आवश्यकता होती है।
  4. इसमे युग्मकजनन, निषेचन आदि की आवश्यकता नहीं होती है।

अलैगिक जनन की हाँनिया:-

  1. इस विधि द्वारा नई प्रजाति का विकास नही होता है।
  2. इसमें अर्द्धसूत्री विभाजन नहीं होता है।
  3. इससे उत्पन्न संतान में किसी नये गुण का विकास नही होता है।
  4. इस विधि द्वारा उत्पन्न संतान दुर्बल होती है।

लैगिक जनन या लिंगी जनन (Sexual Reproduction)

वह जनन जिसमें संतान उत्पन्न करने के लिए दो विपरीत जनको (नर व मादा) की आवश्यकता होती है उसे हम लिंगी या लैंगिक जनन कहते हैं। इस प्रक्रिया में लैंगिक अंगों (जैसे नर मे वृषण व मादा में अण्डाशय) की आवश्यकता होती है। यह एक जटिल प्रक्रिया होती है, जो प्रायः उच्च श्रेणी के जीवों में पाया जाता है।

लैंगिक जनन में होने वाली घटनाएँ :

लैंगिक जनन में घटित होने वाली घटनाए क्रमबद्ध होती है जिन्हें तीन अवस्थाओं में बाटा जा सकता है।

  1. निषेचन पूर्व घटना (Pre fertilisation Event)
  2. निषेचन (fertilisation)
  3. निषेचन के बाद घटनाएँ (Post fertilisation Event)

निषेचन पूर्व घटना :-

लैगिक जनन मे नर व मादा युग्मको के मिलने से पहले होने वाली धन घटनाओं को ‘ निषेचन से पूर्व होने वाली घटनाएँ कहते हैं जो इस प्रकार है।

  • (i) युग्मक जनन (Gametogenisis)
  • (ii) युग्मक स्थानांतरण (Gamate Transfer)

(i) युग्मक जनन (Gametogenisis)- युग्मक जनन की प्रक्रिया मे नर जननांग में नर युग्मक का निर्माण होता है, तथा मादा जननांग में मादा युग्मक का निर्माण होता है। युग्मक सदैव अगुणित होते हैं और इनका निर्माण जनन कोशिका मे अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप होता है। ये युग्मक प्रायः जनन कोशिका होती है जिसके संयोजन से युग्मनज का निर्माण होता है।

(ii) युग्मक स्थानांतरण (Gamate Transfer) -युग्मक निर्माण के पश्चात नर युग्मक व मादा युग्मक एक-दूसरे के समीप आ जाते हैं, जिसे युग्मक स्थानांतरण कहते हैं । यह युग्मक स्थानांतरण जन्तुओ और पौधों में अलग-अलग होता है । जैसे-जन्तुओं में युग्मक स्थानांतरण प्रजनन मार्ग (योनि मार्ग) से फैलोपियन नलिका के रास्ते मादा युग्मक के पास स्थानांतरित होता है जबकि पौधों में यह क्रिया जल, कीट, वायु आदि माध्यम द्वारा सम्पन्न होता है।

(2) निषेचन (fertilisation):-

निषेचन प्रक्रिया मे नर युग्मक व मादा युग्मक एक दूसरे से संलयित होते हैं। इस प्रक्रिया को युग्मक संलयन कहते है इसके पश्चात् द्विगुणित युग्मनज का निर्माण होता है, इसी प्रक्रिया को निषेचन कहते हैं। इसे सिन्गेमी भी कहा जाता है |

(3) निषेचन के बाद होने वाली घटनाएँ :-

निषेचन के बाद होने वाली समस्त घटनाएं, निषेचन पश्च घटनाएँ कहलाती है। इसमे नर युग्मक (n) व मादा युग्मक (n) के, सलयन के बाद युग्मनज (2n) का निर्माण होता है, युग्मनज वृद्धि करके भ्रूण बनाते है, भ्रूण विकसित होकर नये जीव का निर्माण करता है ‘

नर युग्मक (n) + मादा युग्मक (n)→ (निषेचन), युग्मनज (2n)→ भ्रूण→ नया जीव

भ्रूणोद्भव (भ्रूण का विकास)

निषेचन के बाद युग्मनज से (2n) भ्रूण का विकास होता है, जिसे भ्रूणोद्भव कहते है। इस क्रिया में यह युग्मनज (2n) बार-बार समसूत्री विभाजन करके कई कोशिका बनाती है। फिर यही कोशिकाये ऊतक बनाती है, और यही ऊतक मिलकर अंगो का निर्माण करते हैं, यही अंग मिलकर अंगतंत्र का निर्माण करते हैं, और यही अंगतंत्र नये जीव का निर्माण करता है।

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