हमारा पर्यावरण
जैव-भौगोलिक रासायनिक चक्रण: इन चक्रों में अनिवार्य पोषक तत्व जैसे – नाइट्रोजन, कार्बन, ऑक्सीजन एवं जल एक रूप से दुसरे रूप में बदलते रहते है |
उदाहरण : नाइट्रोजन चक्र में नाइट्रोजन वायुमंडल में विभिन्न रूपों में एक चक्र बनाता है |
कार्बन चक्र में कार्बन वायुमंडल के विभिन्न भागों से अपने एक रूप से दुसरे रूप में बदलता रहता है इससे एक चक्र का निर्माण होता है |
पर्यावरण : वे सभी चीजें जो हमें हमें घेरे रखती हैं जो हमारे आसपास रहते हैं | इसमें सभी जैविक तथा अजैविक घटक शामिल हैं | इसलिए सभी जीवों के आलावा इसमें जल व वायु आदि शामिल हैं |
पर्यावरणीय अपशिष्ट : जीवों द्वारा उपयोग की जाने वाले पदार्थो में बहुत से अपशिष्ट रह जाते है जिनमें से बहुत से अपशिष्ट जैव प्रक्रमों के द्वारा अपघटित हो जाते है और बहुत से ऐसे अपशिष्ट होते है जिनका अपघटन जैव-प्रक्रमों के द्वारा नहीं होता है एवं ये पर्यावरण में बने रहते है |
(1) जैव निम्नीकरणीय : वे पदार्थ जो जैविक प्रक्रम के द्वारा अपघटित हो जाते है जैव निम्नीकरणीय कहलाते हैं |
उदाहरण:
सभी कार्बनिक पदार्थ जो सजीवों से प्राप्त होते है उनका जैव प्रक्रम द्वरा अपघटन होता हैं |
गोबर, सूती कपड़ा, जुट, कागज, फल और सब्जियों के छिलके, जंतु अपशिष्ट आदि |
(2) अजैव निम्नीकरणीय: वे पदार्थ जिनका जैविक प्रक्रमों के द्वारा अपघटन नहीं होता है अजैव निम्नीकरनीय कहलाते हैं |
उदाहरण :
प्लास्टिक, पोलीथिन, सश्लेषित रेशे, धातु, रेडियोएक्टिव पदार्थ तथा कुछ रसायन (डी. टी. टी. उर्वरक) आदि जो अभिक्रियाशील होते है और विघटित नहीं हो पाते हैं |
परितंत्र
जैव निम्नीकरनीय पदार्थों के गुण :
(i) ये पदार्थ सक्रीय होते हैं |
(ii) इनका जैव अपघटन होता है |
(iii) ये बहुत कम ही समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं |
(iv) ये पर्यावरण को अधिक हानि नहीं पहुँचाते हैं |
जैव अनिम्नीकरनीय पदार्थों के गुण :
(i) ये पदार्थ अक्रिय (Inert) होते हैं |
(ii) इनका जैव अपघटन नहीं होता है |
(iii) ये लंबे समय तक पर्यावरण में बने रहते हैं |
(iv) ये पर्यावरण के अन्य पदार्थों को हानि पहुँचाते हैं |
परितंत्र : किसी भी क्षेत्र के जैव तथा अजैव घटक मिलकर संयुक्त रूप से एक तंत्र का निर्माण करते हैं जिन्हें परितंत्र कहते है |
जैसे – बगीचा, तालाब, झील, खेत, नदी आदि |
उदाहरण के लिए बगीचा में हमें विभिन्न जैव घटक जैसे – घास, वृक्ष, पौधे, विभिन्न फूल आदि मिलते है वही जीवों के रूप में मेंढक, कीट, पक्षी जैसे जीव होते है, और अजैव घटक वहाँ का वायु, मृदा, ताप आदि होते हैं | अत: बगीचा एक परितंत्र है |
जैव घटक : किसी भी पर्यावरण के सभी जीवधारी जैसे – पेड़-पौधे एवं जीव-जन्तु जैव घटक कहलाते हैं |
अजैव घटक : किसी परितंत्र के भौतिक कारक जैसे- ताप, वर्षा, वायु, मृदा एवं खनिज इत्यादि अजैव घटक कहलाते हैं |
परितंत्र दो प्रकार के होते है :
(i) प्राकृतिक परितंत्र : वन, तालाब नदी एवं झील आदि प्राकृतिक परितंत्र हैं |
(ii) कृत्रिम परितंत्र : बगीचा, खेत आदि कृत्रिम अर्थात मानव निर्मित परितंत्र हैं |
जीवन निर्वाह के आधार पर जीवों का वर्गीकरण :
जीवन निर्वाह के आधार पर जीवों को तीन भागों में विभाजित किया गया है :
(1) उत्पादक (Producer)
(2) उपभोक्ता (Consumer)
(3) अपघटक
1. उत्पादक (Producer) : वे जीव जो सूर्य के प्रकाश में अकार्बनिक पदार्थों जैसे शर्करा व स्टार्च का प्रयोग कर अपना भोजन बनाते हैं, उत्पादक कहलाते हैं |
अर्थात प्रकाश संश्लेषण करने वाले सभी हरे पौधे, नील-हरित शैवाल आदि उत्पादक कहलाते हैं |
2. उपभोक्ता (Consumer) : ऐसे जीव जो अपने निर्वाह के लिए परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उत्पादकों द्वारा निर्मित भोजन का उपयोग करते हैं |
उपभोक्ताओं का निम्नलिखित चार प्रकार है :
(i) शाकाहारी (Herbivores) : वे जीव जो अपने जीवन निर्वाह के लिए सिर्फ पेड़-पौधों पर ही निर्भर रहते हैं, शाकाहारी कहलाते हैं | जैसे – गाय, हिरण, बकरी और खरगोस आदि |
(ii) माँसाहारी (Carnivores) : वे जीव जो सिर्फ माँस खाते है अर्थात जीव-जन्तुओ से अपना भोजन करते है, माँसाहारी कहलाते हैं | उदाहरण : शेर, बाघ, चीता आदि |
(iii) परजीवी (Parasites) : वे जीव स्वयं भोजन नहीं बनाते परन्तु ये अन्य जीवों के शरीर में या उनके ऊपर रहकर उन्हीं से भोजन लेते हैं परजीवी कहलाते हैं | उदाहरण: प्लाजमोडियम, फीता कृमि, जू आदि |
(iv) सर्वाहारी (Omnivores) : वे जीव जो पौधे एवं माँस दोनों खाते हैं सर्वाहारी कहलाते हैं | जैसे- कौवा, कुत्ता आदि |
3. अपमार्जक या अपघटक (Decomposer) : वे जीव जो मरे हुए जीव व् पौधे या अन्य कार्बनिक पदार्थों के जटिल पदार्थों को सरल पदार्थों में विघटित कर देते है | अपघटक कहलाते हैं |
वे जीव जो मृतजैव अवशेषों का अपमार्जन करते है अपमार्जक कहलाते हैं | जैसे – जीवाणु, कवक, गिद्ध आदि | जैसे – फफूँदी व जीवाणु आदि |
आहार श्रृंखला (Food Chain) : जीवों की वह श्रृंखला जिसके प्रत्येक चरण में एक पोषी स्तर का निर्माण करते हैं जिसमें जीव एक-दुसरे का आहार करते है | इस प्रकार विभिन्न जैविक स्तरों पर भाग लेने वाले जीवों की इस श्रृंखला को आहार श्रृंखला कहते हैं |
उदाहरण :
(a) हरे पौधे ⇒ हिरण ⇒ बाघ
(b) हरे पौधे ⇒टिड्डा ⇒मेंढक ⇒साँप ⇒गिद्ध /चील
(c) हरे पौधे ⇒बिच्छु ⇒मछली ⇒बगूला
जैव आवर्धन (Biological Magnification) : आहार श्रृंखला में जीव एक दुसरे का भक्षण करते हैं | इस प्रक्रम में कुछ हानिकारक रासायनिक पदार्थ आहार श्रृंखला के माध्यम से एक जीव से दुसरे जीव में स्थानांतरित हो जाते है | इसे ही जैव आवर्धन कहते है |
अन्य शब्दों में, आहार श्रृंखला में हानिकारक पदार्थों का एक जीव से दुसरे में स्थानान्तरण जैव आवर्धन कहलाता है |
पर्यावरण Environment और हमारा दायित्व
वायुमंडल प्रकृति का वरदान
हमारा वायुमंडल हमारे लिये प्रकृति का वरदान है. यह हमारा पालनकर्ता और जीवन का आधार है. हमें स्वस्थ और सुखमय रखने का रक्षा कवच है. आप यह सोचकर देखिये कि यदि आपका यह रक्षा कवच ही यदि यह विषाक्त हो जाए तो यह अभिशाप बनकर मानव-जीवन का संहारक बन जाता है. इसलिए पर्यावरण की सुरक्षा का दायित्व हम सबका है.
आजादी से पहले जब बड़े-बड़े उद्दोगों का विस्तार नहीं हुआ था, हमारा पर्यावरण Environment बिलकुल शुद्ध था. शुद्ध वायु हमारा आलिंगन करती थी. शुद्ध जल हमारा अभिषेक करता था. उर्वर भूमि हमें स्वास्थ्यप्रद अन्न प्रदान करती थी. जीवन में न अधिक भाग –दौड़ थी, न हाय-हाय. संतुष्टि पूर्ण शान्तिप्रद जीवन हम सबके लिये पर्यावरण का वरदान था.
शस्य श्यामला धरती और हम
भारत भूमि शस्य श्यामला थी, वन उपवनों से हरी- भरी थी. वे पेड़-पौधों, वृक्ष-लताओं से समृद्ध थी, इसलिए वायुमंडल शुद्ध था. हवा की पावन सुगंध जन-जीवन को सुरभित कर रही थी. जनसंख्या बढी. इसकी गति तीव्र हुई. इस बढी हुई जनता के निवास के लिए भूमि चाहिए थी. दूसरी ओर, बढती जनसंख्या की भूख मिटाने और अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ प्रदान करने के लिए उत्पादन बढ़ाने की जरूरत थी. उत्पादन बढ़ाने के लिए कारखाने, फैक्ट्रियां तथा औद्दोगिक संस्थान स्थापित किए गए. इनके लिए भूमि की मांग हुई. इसकी मांग पूरी की वन-उपवनों ने, खेत-खलिहानों ने. जहाँ भूमि शस्य श्यामला थी, वहाँ गगन चुम्बी इमारतों का निर्माण हो गया, भूमि को skyscrappers से भर दिया, वायु मार्ग को अवरुद्ध कर दिया और हमने प्राणदायिनी वायु को अपने ही हाथों कुछ सीमा तक अवरूद्ध कर अपने लिए अनेक असाध्य रोगों को निमन्त्रण दे दिया.
बढ़ता उद्योग और पर्यावरण Environment
जन-सुख-सुविधा के लिए आद्योगिक संस्थानों नई वैज्ञानिक प्रौद्दोगिकी ने उत्पादन तो बढ़ाया, किन्तु पर्यावरण को तीन रूपों में प्रभावित कर दिया. (1) कारखानों की चिमनियों से जो धुआँ निकला, उसने वायु को प्रदूषित कर दिया. उत्पादन के अवशेष तथा व्यर्थ पदार्थों को जलाया और भराव के काम लिया गया. दोनों ने वायु को प्रदूषित किया (2) उद्दोगों के दूषित रासायनिक द्रवित पदार्थ को पास की नदी में प्रवाहित कर दिया. जिससे पेय-जल दूषित हो गया.(3) वन के वृक्ष कटने से मौसम का मिजाज बिगड़ा, वर्षा का वर्शन बे – समय हुआ. वर्षा का जल जो पहले वृक्षों के कारण बहने से रूकता था, बेरोकटोक बहने लगा, फलत: भूमि की उर्वरा शक्ति घटने लगी. कुछ औद्दोगिक उत्पादनों के लिए वनों का भी निर्ममता ने विनाश किया गया. इससे भी पर्यावरण दूषित हुआ.
वायु प्रदूषण और पर्यावरण Environment
वायु प्रदूषण का प्रथम कारण था वन-उपवन की कटाई. कटाई का कारण था जनसंख्या की वृद्धि के साथ निवास के लिए भवनों का निर्माण और औद्दोगिक संस्थानों की स्थापना. इसलिए वायु प्रदूष्ण रोकने के लिए जनसंख्या वृद्धि को रोकना हमारा कर्तव्य होना चाहिए. दो से अधिक बच्चे उत्पन्न करना, अपराध मानना होगा. दूसरी ओर, औद्दिगिक संस्थानों को शहर से बाहर, आबादी से दूर स्थानान्तरित करवाना होगा. उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालयों के निर्णयों के मानने के लिए बाध्य करना होगा. तीसरी ओर, औद्दोगिक कचरे का वैज्ञानिक हल ढूँढवाना, हमारी जिम्मेदारी है.
वाहनों के पाइपों से जो गैस सरे-आम जीवन में विष घोल रही हैं, उनको रोकें. हम अपने वाहनों को ’प्रदूषण -मुक्त’ प्रमाण-पत्र मिलने पर ही चलें. धूम्रपान जो हमारे शौक की विवशता है, उसे यथासम्भव कम करें. प्रदूषित स्थलों पर नाक पर रूमाल रखने का स्वभाव बनाएँ.
वनीकरण समय की मांग
भूमि को पुनः उर्वर बनाना होगा. इसके लिए वन-उपवनों का विकास करना होगा तथा वनों के विनाश को रोकना होगा. असंख्य पेड़-पौधों लगाकर उनको पल्लवित-पुष्पित करना हमारा दायित्व होगा. राजमार्गों तथा अत्यधिक व्यस्त मार्गों के बीच या दोनों ओर जैसे भी संभव हो. वृक्षों की पंक्तियाँ सुशोभित करवाना भी हम अपना धर्म समझें. जब भी एक पेड़ काटें उसके स्थान पर पहले एक पेड़ जरुर लगा दें.
जीवन की दूसरी आवश्यकता है, जल औद्दोगिक-संस्थानों ने तो जल को विषाक्त किया ही, किन्तु हमने अपनी अव्यवस्था से भी जल को दूषित कर दिया, कपड़े-बरतन-हाथ धोने, स्नान करने तथा फर्श साफ करने पर जो अशुद्ध जल बहता है, उसे हमने पास के जाल स्रोत में बहा दिया. उसमें अपना मल और मूत्र भी प्रवाहित करते रहे जिससे जल और भी प्रदूषित हो गया.
बिन पानी सब सून
शुद्ध-जल पीने को मिले, यह हमारा अधिकार है, पर जल प्रदूषण से बचना भी हमारा दायित्व है. शहर के गन्दे जल का पास की नदी में प्रवाहित करने के स्थान पर आबादी से दूर उसके विसर्जन की व्यवस्था करवानी होगी. दूसरे, औद्दोगिक रासायनिक द्रव को जल में प्रवाहित करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगवाना होगा. तीसरे, रासायनिक प्रक्रिया द्वारा जल के परिशोधन को निश्चित करना होगा. चौथे, जल के अपव्यय को रोकें तथा पेय जल को फिल्टर करके या उबाल कर प्रयोग में लाएं.
ध्वनि प्रदूषण और हमारा जीवन
पर्यावरण को प्रदूषित करने का एक और माध्यम है-‘शोर’. ऐसे ‘ध्वनि प्रदूषण’ कहा जाता है. ऊँची, तीखी और कर्ण कटु ध्वनियाँ जीवन के लिए हानिप्रद हैं. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन की ऊँची आवाज तो घर की चार-दीवारी में गूंजती है, जो घर के वातावरण को दूषित करती हैं. धार्मिक स्थानों पर लगे लाउडस्पीकर, दुकानों पर लगे रेडियो, बैंस की आवाज, जलसे-जुलूसों की नारे-बजी अनचाहे हमें झेलनी पडती हैं. इसी प्रकार सडकों पर चलते वाहनों के ‘हार्नों’ की आवाज तथा उनकी गडगडाहट भी भयंकर शोर उत्पन्न करती हैं. ‘शोर’ से उत्पन्न होना है ध्वनि प्रदुषण. ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित होती है हमारी श्रवण-शक्ति.
ध्वनि प्रदूषण से न सिर्फ हमारी सुनने की शक्ति समाप्त हो जाती है बल्कि इससे और भी कई रोग हो जाते हैं.
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