ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(A) जीवाश्मीय ईधन :
(B) तापीय विध्युत संयंत्र :
(C) जल विध्युत संयंत्र :
(D) जैव-मात्रा (बायो-मास) :
(E) पवन ऊर्जा :
(B) तापीय विध्युत संयंत्र :
(C) जल विध्युत संयंत्र :
(D) जैव-मात्रा (बायो-मास) :
(E) पवन ऊर्जा :
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(A) जीवाश्मीय ईधन :
लाखों वर्षों पूर्व वनस्पति व प्राणियों के अवशेष प्राकृतिक दबाव से पृथ्वी के नीचे दब गये । पृथ्वी के आंतरिक भाग में बड़ी मात्रा में ऊष्मा व दाब के कारण ये अवशेष जीवाश्मीय र्इंधन जैसे कि कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस में परिवर्तित हो गये। ये पारम्परिक ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत है।
जीवाश्मीय र्इंधन के भण्डार परिमित और सीमित हैं। उनका आधुनिक दुनिया में उपभोग उनके निर्माण की दर की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए किसी दिन जीवाश्मीय र्इंधन लगभग समाप्त हो जायेगा।
उनका वनस्पति एवं प्राणी जगत से व्युत्पन्न उत्पाद द्वारा पुनर्भरण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार हमें शक्ति के वैकल्पिक स्त्रोतों को विकसित करना चाहिए।
लाखों वर्षों पूर्व वनस्पति व प्राणियों के अवशेष प्राकृतिक दबाव से पृथ्वी के नीचे दब गये । पृथ्वी के आंतरिक भाग में बड़ी मात्रा में ऊष्मा व दाब के कारण ये अवशेष जीवाश्मीय र्इंधन जैसे कि कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस में परिवर्तित हो गये। ये पारम्परिक ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत है।
जीवाश्मीय र्इंधन के भण्डार परिमित और सीमित हैं। उनका आधुनिक दुनिया में उपभोग उनके निर्माण की दर की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए किसी दिन जीवाश्मीय र्इंधन लगभग समाप्त हो जायेगा।
उनका वनस्पति एवं प्राणी जगत से व्युत्पन्न उत्पाद द्वारा पुनर्भरण नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार हमें शक्ति के वैकल्पिक स्त्रोतों को विकसित करना चाहिए।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(B) तापीय विध्युत संयंत्र :
विध्युत संयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मीय र्इंधन का दहन करके जल को उबालकर भाप बनार्इ जाती है जो टरबाइनों को घुमाकर विध्युत उत्पन्न करती है।
समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन की तुलना में विध्युत संचरण अधिक दक्ष होता है। यही कारण है कि बहुत से तापीय विध्युत संयंत्र कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट स्थापित किए गए हैं। यहाँ र्इंधन के दहन द्वारा ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है।
विध्युत संयंत्रों में प्रतिदिन विशाल मात्रा में जीवाश्मीय र्इंधन का दहन करके जल को उबालकर भाप बनार्इ जाती है जो टरबाइनों को घुमाकर विध्युत उत्पन्न करती है।
समान दूरियों तक कोयले तथा पेट्रोलियम के परिवहन की तुलना में विध्युत संचरण अधिक दक्ष होता है। यही कारण है कि बहुत से तापीय विध्युत संयंत्र कोयले तथा तेल के क्षेत्रों के निकट स्थापित किए गए हैं। यहाँ र्इंधन के दहन द्वारा ऊष्मीय ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित किया जाता है।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(C) जल विध्युत संयंत्र :
जल विध्युत संयंत्रों में गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा को विध्युत में रूपांतरित किया जाता है। चूँकि ऐसे जल-प्रपातों की संख्या बहुत कम है जिनका उपयोग स्थितिज ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सके, अत: जल विध्युत संयंत्रों को बाँधें से संबद्ध किया गया है।
जल विध्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है जिसके फलस्वरूप इनमें भरे जल का तल ऊँचा होता जाता है। इस प्रक्रम में प्रवाहित जल की गतिज ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है। फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और जनित्र द्वारा विध्युत उत्पादन होता है।
चूँकि हर बार जब भी वर्षा होती है, जलाशय पुन: जल से भर जाते हैं, इसीलिए जल विध्युत ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। अत: हमें जीवाश्मीय र्इंधन की भाँति, जो किसी न किसी दिन अवश्य समाप्त हो जाएँगे, जल विध्युत स्रोतों के समाप्त होने की कोर्इ चिंता नहीं होती।
सीमाएँ :
बडे़-बड़े बाँधें के निर्माण के साथ कुछ समस्याएँ भी जुड़ी हैं। बाँधों का केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही निर्माण किया जा सकता है तथा इनके लिए पर्वतीय क्षेत्र अच्छे माने जाते हैं। बाँधों के निर्माण से बहुत-सी कृषियोग्य भूमि तथा मानव आवास डूबने के कारण, नष्ट हो जाते हैं।
बाँध के जल में डूबने के कारण बड़े-बड़े पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाते हैं।
जो पेड़-पौधे, वनस्पति आदि जल में डूब जाते हैं वे अवायवीय परिस्थितियों में सड़ने लगते हैं और विघटित होकर विशाल मात्रा में मेथैन गैस उत्पन्न करते हैं जो कि एक ग्रीन हाउस गैस है। बाँधों के निर्माण से विस्थापित लोगों के संतोषजनक पुनर्वास व क्षतिपूर्ति की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। गंगा नदी पर टिहरी बाँध के निर्माण तथा नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँध के निर्माण की परियोजनाओं का विरोध इसी प्रकार की समस्याओं के कारण ही हुआ था।
जल विध्युत संयंत्रों में गिरते जल की स्थितिज ऊर्जा को विध्युत में रूपांतरित किया जाता है। चूँकि ऐसे जल-प्रपातों की संख्या बहुत कम है जिनका उपयोग स्थितिज ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सके, अत: जल विध्युत संयंत्रों को बाँधें से संबद्ध किया गया है।
जल विध्युत उत्पन्न करने के लिए नदियों के बहाव को रोककर बड़े जलाशयों (कृत्रिम झीलों) में जल एकत्र करने के लिए ऊँचे-ऊँचे बाँध बनाए जाते हैं। इन जलाशयों में जल संचित होता रहता है जिसके फलस्वरूप इनमें भरे जल का तल ऊँचा होता जाता है। इस प्रक्रम में प्रवाहित जल की गतिज ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। बाँध के ऊपरी भाग से पाइपों द्वारा जल, बाँध के आधार के पास स्थापित टरबाइन के ब्लेडों पर मुक्त रूप से गिरता है। फलस्वरूप टरबाइन के ब्लेड घूर्णन गति करते हैं और जनित्र द्वारा विध्युत उत्पादन होता है।
चूँकि हर बार जब भी वर्षा होती है, जलाशय पुन: जल से भर जाते हैं, इसीलिए जल विध्युत ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। अत: हमें जीवाश्मीय र्इंधन की भाँति, जो किसी न किसी दिन अवश्य समाप्त हो जाएँगे, जल विध्युत स्रोतों के समाप्त होने की कोर्इ चिंता नहीं होती।
सीमाएँ :
बडे़-बड़े बाँधें के निर्माण के साथ कुछ समस्याएँ भी जुड़ी हैं। बाँधों का केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही निर्माण किया जा सकता है तथा इनके लिए पर्वतीय क्षेत्र अच्छे माने जाते हैं। बाँधों के निर्माण से बहुत-सी कृषियोग्य भूमि तथा मानव आवास डूबने के कारण, नष्ट हो जाते हैं।
बाँध के जल में डूबने के कारण बड़े-बड़े पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाते हैं।
जो पेड़-पौधे, वनस्पति आदि जल में डूब जाते हैं वे अवायवीय परिस्थितियों में सड़ने लगते हैं और विघटित होकर विशाल मात्रा में मेथैन गैस उत्पन्न करते हैं जो कि एक ग्रीन हाउस गैस है। बाँधों के निर्माण से विस्थापित लोगों के संतोषजनक पुनर्वास व क्षतिपूर्ति की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। गंगा नदी पर टिहरी बाँध के निर्माण तथा नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँध के निर्माण की परियोजनाओं का विरोध इसी प्रकार की समस्याओं के कारण ही हुआ था।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(D) जैव-मात्रा (बायो-मास) :
ये र्इंधन पादप एवं जंतु उत्पाद हैं, अत: इन र्इंधनों के स्त्रोत को हम जैव-मात्रा कहते हैं। परंतु ये र्इंधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते तथा इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुआँ निकलता है इसलिए, इन र्इंधनों की दक्षता में वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का सहारा आवश्यक है।
जब लकड़ी को वायु की सीमित आपूर्ति में जलाते हैं तो उसमें उपस्थित जल तथा वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं तथा अवशेष के रूप में चारकोल रह जाता है। चारकोल बिना ज्वाला के जलता है, इससे अपेक्षाकृत कम धुआँ निकलता है तथा इसकी ऊष्मा उत्पन्न करने की दक्षता भी अधिक होती है।
इसी प्रकार गोबर, फसलों के कटने के पश्चात बचे अवशिष्ट, सब्जियों के अपशिष्ट जैसे विविध पादप तथा वाहित मल जब ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अपघटित होते हैं तो बायो गैस (जैव गैस) निकलती है। चूँकि इस गैस को बनाने में उपयोग होने वाला आरम्भिक पदार्थ मुख्यत: गोबर है, इसलिए इसका प्रचलित नाम “गोबर गैस” है।
संरचना :
इस संयंत्र में र्इंटों से बनी गुंबद जैसी संरचना होती है। जैव गैस बनाने के लिए मिश्रण टंकी में गोबर तथा जल का एक गाढ़ा घोल, जिसे कर्दम (slurry) कहते हैं, बनाया जाता है जहाँ से इसे संपाचित्र (digester) में डाल देते हैं। संपाचित्र चारों ओर से बंद एक कक्ष होता है जिसमें ऑक्सीजन नहीं होती। अवायवीय सूक्ष्मजीव जिन्हें जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती, गोबर की स्लरी के जटिल यौगिकों का अपघटन कर देते हैं।
अपघटन-प्रक्रम पूरा होने तथा इसके फलस्वरूप मेथैन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन तथा हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी गैसें उत्पन्न होने में कुछ दिन लगते हैं। जैव गैस को संपाचित्र के ऊपर बनी गैस टंकी में संचित किया जाता है। जैव गैस को गैस टंकी से उपयोग के लिए पाइपों द्वारा बाहर निकाल लिया जाता है।
जैव गैस एक उत्तम र्इंधन है क्योंकि इसमें 75 प्रतिशत तक मेथैन गैस होती है। यह धुआँ उत्पन्न किए बिना जलती है। लकड़ी, चारकोल तथा कोयले के विपरीत जैव गैस के जलने के पश्चात राख जैसा कोर्इ अपशिष्ट शेष नहीं बचता। इसकी तापन क्षमता उच्च होती है। जैव गैस का उपयोग प्रकाश के स्त्रोत के रूप में भी किया जाता है। जैव गैस संयंत्र में शेष बची स्लरी को समय-समय पर संयंत्र से बाहर निकालते हैं। इस स्लरी में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं, अत: यह एक उत्तम खाद के रूप में काम आती है।
ये र्इंधन पादप एवं जंतु उत्पाद हैं, अत: इन र्इंधनों के स्त्रोत को हम जैव-मात्रा कहते हैं। परंतु ये र्इंधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते तथा इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुआँ निकलता है इसलिए, इन र्इंधनों की दक्षता में वृद्धि के लिए प्रौद्योगिकी का सहारा आवश्यक है।
जब लकड़ी को वायु की सीमित आपूर्ति में जलाते हैं तो उसमें उपस्थित जल तथा वाष्पशील पदार्थ बाहर निकल जाते हैं तथा अवशेष के रूप में चारकोल रह जाता है। चारकोल बिना ज्वाला के जलता है, इससे अपेक्षाकृत कम धुआँ निकलता है तथा इसकी ऊष्मा उत्पन्न करने की दक्षता भी अधिक होती है।
इसी प्रकार गोबर, फसलों के कटने के पश्चात बचे अवशिष्ट, सब्जियों के अपशिष्ट जैसे विविध पादप तथा वाहित मल जब ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में अपघटित होते हैं तो बायो गैस (जैव गैस) निकलती है। चूँकि इस गैस को बनाने में उपयोग होने वाला आरम्भिक पदार्थ मुख्यत: गोबर है, इसलिए इसका प्रचलित नाम “गोबर गैस” है।
संरचना :
इस संयंत्र में र्इंटों से बनी गुंबद जैसी संरचना होती है। जैव गैस बनाने के लिए मिश्रण टंकी में गोबर तथा जल का एक गाढ़ा घोल, जिसे कर्दम (slurry) कहते हैं, बनाया जाता है जहाँ से इसे संपाचित्र (digester) में डाल देते हैं। संपाचित्र चारों ओर से बंद एक कक्ष होता है जिसमें ऑक्सीजन नहीं होती। अवायवीय सूक्ष्मजीव जिन्हें जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती, गोबर की स्लरी के जटिल यौगिकों का अपघटन कर देते हैं।
अपघटन-प्रक्रम पूरा होने तथा इसके फलस्वरूप मेथैन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन तथा हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी गैसें उत्पन्न होने में कुछ दिन लगते हैं। जैव गैस को संपाचित्र के ऊपर बनी गैस टंकी में संचित किया जाता है। जैव गैस को गैस टंकी से उपयोग के लिए पाइपों द्वारा बाहर निकाल लिया जाता है।
जैव गैस एक उत्तम र्इंधन है क्योंकि इसमें 75 प्रतिशत तक मेथैन गैस होती है। यह धुआँ उत्पन्न किए बिना जलती है। लकड़ी, चारकोल तथा कोयले के विपरीत जैव गैस के जलने के पश्चात राख जैसा कोर्इ अपशिष्ट शेष नहीं बचता। इसकी तापन क्षमता उच्च होती है। जैव गैस का उपयोग प्रकाश के स्त्रोत के रूप में भी किया जाता है। जैव गैस संयंत्र में शेष बची स्लरी को समय-समय पर संयंत्र से बाहर निकालते हैं। इस स्लरी में नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं, अत: यह एक उत्तम खाद के रूप में काम आती है।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(E) पवन ऊर्जा :
सूर्य के विकिरणों द्वारा भूखंडों तथा जलाशयों के असमान तप्त होने के कारण वायु में गति उत्पन्न होती है तथा पवनों का प्रवाह होता है। पवनों की गतिज ऊर्जा का उपयोग कार्यों को करने में किया जा सकता है। पवन ऊर्जा का उपयोग शताब्दियों से पवन-चक्कियों द्वारा यांत्रिक कार्यों को करने में होता रहा है।
उदाहरण के लिए, किसी पवन-चक्की द्वारा प्रचालित जलपंप (पानी को ऊपर उठाने वाले पंपों) में पवन-चक्की की पंखुड़ियों की घूण्र्ाी गति का उपयोग कुओं से जल खींचने के लिए होता है। आजकल पवन ऊर्जा का उपयोग विध्युत उत्पन्न करने में भी किया जा रहा है।
पवन-चक्की की घूण्र्ाी गति का उपयोग विध्युत उत्पन्न करने के लिए विध्युत जनित्र के टरबाइन को घुमाने के लिए किया जाता है। किसी एकल पवन चक्की का निर्गत (अर्थात उत्पन्न विध्युत) बहुत कम होता है जिसका व्यापारिक उपयोग संभव नहीं होता। अत: किसी विशाल क्षेत्र में बहुत-सी पवन-चक्कियाँ लगार्इ जाती हैं तथा इस क्षेत्र को पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं।
सूर्य के विकिरणों द्वारा भूखंडों तथा जलाशयों के असमान तप्त होने के कारण वायु में गति उत्पन्न होती है तथा पवनों का प्रवाह होता है। पवनों की गतिज ऊर्जा का उपयोग कार्यों को करने में किया जा सकता है। पवन ऊर्जा का उपयोग शताब्दियों से पवन-चक्कियों द्वारा यांत्रिक कार्यों को करने में होता रहा है।
उदाहरण के लिए, किसी पवन-चक्की द्वारा प्रचालित जलपंप (पानी को ऊपर उठाने वाले पंपों) में पवन-चक्की की पंखुड़ियों की घूण्र्ाी गति का उपयोग कुओं से जल खींचने के लिए होता है। आजकल पवन ऊर्जा का उपयोग विध्युत उत्पन्न करने में भी किया जा रहा है।
पवन-चक्की की घूण्र्ाी गति का उपयोग विध्युत उत्पन्न करने के लिए विध्युत जनित्र के टरबाइन को घुमाने के लिए किया जाता है। किसी एकल पवन चक्की का निर्गत (अर्थात उत्पन्न विध्युत) बहुत कम होता है जिसका व्यापारिक उपयोग संभव नहीं होता। अत: किसी विशाल क्षेत्र में बहुत-सी पवन-चक्कियाँ लगार्इ जाती हैं तथा इस क्षेत्र को पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं।
लाभ : पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का एक पर्यावरणीय-हितैषी एवं दक्ष स्रोत है। इसके द्वारा विध्युत उत्पादन के लिए बार-बार धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती।
सीमाएँ : पवन ऊर्जा फार्म केवल उन्हीं क्षेत्रों में स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ वर्ष के अधिकांश दिनों में तीव्र पवन चलती हों। टरबाइन की आवश्यक चाल को बनाए रखने के लिए पवन की चाल भी 15 km/h से अधिक होनी चाहिए। इसके साथ ही संचायक सेलों जैसी कोर्इ पूर्तिकर सुविधा भी होनी चाहिए जिसका उपयोग ऊर्जा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उस समय किया जा सके जब पवन नहीं चलती हों।
ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए एक विशाल भूखंड की आवश्यकता होती है। 1MW के जनित्र के लिए पवन फार्म को लगभग 2 हेक्टेयर भूमि चाहिए। पवन ऊर्जा फार्म स्थापित करने की आरंभिक लागत अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त पवन-चक्कियों के दृढ़ आधार तथा पंखुड़ियाँ वायुमंडल में खुले होने के कारण अंधड़, चक्रवात, धूप, वर्षा आदि प्राकृतिक थपेड़ों को सहन करते हैं, अत: उनके लिए उच्च स्तर के रखरखाव की आवश्यकता होती है।
सीमाएँ : पवन ऊर्जा फार्म केवल उन्हीं क्षेत्रों में स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ वर्ष के अधिकांश दिनों में तीव्र पवन चलती हों। टरबाइन की आवश्यक चाल को बनाए रखने के लिए पवन की चाल भी 15 km/h से अधिक होनी चाहिए। इसके साथ ही संचायक सेलों जैसी कोर्इ पूर्तिकर सुविधा भी होनी चाहिए जिसका उपयोग ऊर्जा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उस समय किया जा सके जब पवन नहीं चलती हों।
ऊर्जा फार्म स्थापित करने के लिए एक विशाल भूखंड की आवश्यकता होती है। 1MW के जनित्र के लिए पवन फार्म को लगभग 2 हेक्टेयर भूमि चाहिए। पवन ऊर्जा फार्म स्थापित करने की आरंभिक लागत अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त पवन-चक्कियों के दृढ़ आधार तथा पंखुड़ियाँ वायुमंडल में खुले होने के कारण अंधड़, चक्रवात, धूप, वर्षा आदि प्राकृतिक थपेड़ों को सहन करते हैं, अत: उनके लिए उच्च स्तर के रखरखाव की आवश्यकता होती है।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
यह तीन प्रकार से प्रद्शित कि जा सकती है
(A) सौर ऊर्जा :
(i) सौर कूकर :
(ii) सौर सेल :
(b) समुद्र से ऊर्जा :
(i) ज्वारीय ऊर्जा :
(ii) तरंग ऊर्जा :
(iii) महासागरीय तापीय ऊर्जा :
(C) भूतापीय ऊर्जा :
नाभिकीय ऊर्जा :
नाभिकीय विखंडन :
नाभिकीय संलयन
(A) सौर ऊर्जा :
(i) सौर कूकर :
(ii) सौर सेल :
(b) समुद्र से ऊर्जा :
(i) ज्वारीय ऊर्जा :
(ii) तरंग ऊर्जा :
(iii) महासागरीय तापीय ऊर्जा :
(C) भूतापीय ऊर्जा :
नाभिकीय ऊर्जा :
नाभिकीय विखंडन :
नाभिकीय संलयन
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(A) सौर ऊर्जा :
सूर्य विशाल मात्रा में ऊर्जा विकिरित कर रहा है। सौर ऊर्जा का केवल एक लघु भाग ही पृथ्वी के वायुमंडल की बाह्य परतों पर पहुँच पाता है। इसका लगभग आधा भाग वायुमंडल से गुजरते समय अवशोषित हो जाता है तथा शेष भाग पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचता है।
(i) सौर कूकर :
सर्वसम परिस्थितियों में परावर्तक पृष्ठ अथवा श्वेत (सफेद) पृष्ठ की तुलना में कृष्ण (काला) पृष्ठ अधिक ऊष्मा अवशोषित करता है। सौर कुकरों तथा सौर जल तापकों की कार्य विधि में इसी गुण का उपयोग किया जाता है। कुछ सौर कुकरों में सूर्य की किरणों को फोकसित करने के लिए दर्पणों का उपयोग किया जाता है जिससे इनका ताप और उच्च हो जाता है। सौर कुकरों में काँच की शीट का ढक्कन होता है।
(ii) सौर सेल :
सौर सेल सौर ऊर्जा को विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित करते हैं। धूप में रखे जाने पर किसी प्ररूपी सौर सेल से 0.5-1.0 V तक वोल्टता विकसित होती है तथा लगभग 0.7 W विध्युत उत्पन्न कर सकते हैं। जब बहुत अधिक संख्या में सौर सेलों को संयोजित करते हैं तो यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है जिनसे व्यावहारिक उपयोग के लिए पर्याप्त विध्युत प्राप्त हो जाती है।
सौर सेलों के साथ संबद्ध प्रमुख लाभ यह है कि इनमें कोर्इ भी गतिमान पुरजा नहीं होता, इनका रखरखाव सस्ता है तथा ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी संतोषजनक कार्य करते हैं।
सौर सेलों के उपयोग करने का एक अन्य लाभ यह है कि इन्हें सुदूर तथा अगम्य स्थानों में स्थापित किया जा सकता है। इन्हें ऐसे छितरे बसे हुए क्षेत्रों में भी स्थापित किया जा सकता है जहाँ शक्ति संचरण के लिए केबल बिछाना अत्यंत खर्चीला तथा व्यापारिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं होता।
सौर सेल बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, परंतु सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्ध्ता सीमित है। सौर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया अभी भी बहुत महँगी है। सौर सेलों को परस्पर संयोजित करके सौर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है जिसके कारण लागत में और वृद्धि हो जाती है।
उच्च लागत तथा कम दक्षता होने पर भी सौर सेलों का उपयोग बहुत से वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए किया जाता है। मानव-निर्मित उपग्रहों तथा अंतरिक्ष अन्वेषक युक्तियों जैसे मार्स ऑख्रबटरों में सौर सेलों का उपयोग प्रमुख ऊर्जा स्त्रोत के रूप में किया जाता है।
सूर्य विशाल मात्रा में ऊर्जा विकिरित कर रहा है। सौर ऊर्जा का केवल एक लघु भाग ही पृथ्वी के वायुमंडल की बाह्य परतों पर पहुँच पाता है। इसका लगभग आधा भाग वायुमंडल से गुजरते समय अवशोषित हो जाता है तथा शेष भाग पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचता है।
(i) सौर कूकर :
सर्वसम परिस्थितियों में परावर्तक पृष्ठ अथवा श्वेत (सफेद) पृष्ठ की तुलना में कृष्ण (काला) पृष्ठ अधिक ऊष्मा अवशोषित करता है। सौर कुकरों तथा सौर जल तापकों की कार्य विधि में इसी गुण का उपयोग किया जाता है। कुछ सौर कुकरों में सूर्य की किरणों को फोकसित करने के लिए दर्पणों का उपयोग किया जाता है जिससे इनका ताप और उच्च हो जाता है। सौर कुकरों में काँच की शीट का ढक्कन होता है।
(ii) सौर सेल :
सौर सेल सौर ऊर्जा को विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित करते हैं। धूप में रखे जाने पर किसी प्ररूपी सौर सेल से 0.5-1.0 V तक वोल्टता विकसित होती है तथा लगभग 0.7 W विध्युत उत्पन्न कर सकते हैं। जब बहुत अधिक संख्या में सौर सेलों को संयोजित करते हैं तो यह व्यवस्था सौर पैनल कहलाती है जिनसे व्यावहारिक उपयोग के लिए पर्याप्त विध्युत प्राप्त हो जाती है।
सौर सेलों के साथ संबद्ध प्रमुख लाभ यह है कि इनमें कोर्इ भी गतिमान पुरजा नहीं होता, इनका रखरखाव सस्ता है तथा ये बिना किसी फोकसन युक्ति के काफी संतोषजनक कार्य करते हैं।
सौर सेलों के उपयोग करने का एक अन्य लाभ यह है कि इन्हें सुदूर तथा अगम्य स्थानों में स्थापित किया जा सकता है। इन्हें ऐसे छितरे बसे हुए क्षेत्रों में भी स्थापित किया जा सकता है जहाँ शक्ति संचरण के लिए केबल बिछाना अत्यंत खर्चीला तथा व्यापारिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं होता।
सौर सेल बनाने के लिए सिलिकॉन का उपयोग किया जाता है जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, परंतु सौर सेलों को बनाने में उपयोग होने वाले विशिष्ट श्रेणी के सिलिकॉन की उपलब्ध्ता सीमित है। सौर सेलों के उत्पादन की समस्त प्रक्रिया अभी भी बहुत महँगी है। सौर सेलों को परस्पर संयोजित करके सौर पैनल बनाने में सिल्वर (चाँदी) का उपयोग होता है जिसके कारण लागत में और वृद्धि हो जाती है।
उच्च लागत तथा कम दक्षता होने पर भी सौर सेलों का उपयोग बहुत से वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए किया जाता है। मानव-निर्मित उपग्रहों तथा अंतरिक्ष अन्वेषक युक्तियों जैसे मार्स ऑख्रबटरों में सौर सेलों का उपयोग प्रमुख ऊर्जा स्त्रोत के रूप में किया जाता है।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(b) समुद्र से ऊर्जा :
(i) ज्वारीय ऊर्जा : घूर्णन गति करती पृथ्वी पर मुख्य रूप से चंद्रमा के गुरुत्वीय खिंचाव के कारण सागरों में जल का स्तर चढ़ता व गिरता रहता है। इस परिघटना को ज्वार-भाटा कहते हैं। ज्वार-भाटे में जल के स्तर के चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है। ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है।
बाँध के द्वार पर स्थापित टरबाइन ज्वारीय ऊर्जा को विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर देती है।
(ii) तरंग ऊर्जा : समुद्र तट के निकट विशाल तरंगों की गतिज ऊर्जा को भी विध्युत उत्पन्न करने के लिए इसी ढंग से ट्रेप किया जा सकता है।
महासागरों के पृष्ठ पर आर-पार बहने वाली प्रबल पवन तरंगें उत्पन्न करती है। तरंग ऊर्जा का वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तरंगें अत्यंत प्रबल हों। तरंग ऊर्जा को ट्रेप करने के लिए विविध युक्तियाँ विकसित की गर्इ हैं ताकि टरबाइन को घुमाकर विध्युत उत्पन्न करने के लिए इनका उपयोग किया जा सके।
(iii) महासागरीय तापीय ऊर्जा : समुद्रों अथवा महासागरों के पृष्ठ का जल सूर्य द्वारा तप्त हो जाता है जबकि इनके गहरार्इ वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठंडा होता है। ताप में इस अंतर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतरण विध्युत संयंत्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विध्युत संयंत्र) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। OTEC विध्युत संयंत्र केवल तभी प्रचालित होते हैं जब महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 km तक की गहरार्इ पर जल के ताप में 20º C का अंतर हो। पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसे वाष्पशील द्रवों को उबालने में किया जाता है। इस प्रकार बनी द्रवों की वाष्प फिर जनित्र के टरबाइन को घुमाती है। महासागर की गहराइयों से ठंडे जल को पंपों से खींचकर वाष्प को ठंडा करके फिर से द्रव में संघनित किया जाता है।
महासागरों की ऊर्जा की क्षमता (ज्वारीय-ऊर्जा, तरंग-ऊर्जा तथा महासागरीय-तापीय ऊर्जा) अति विशाल है परंतु इसके दक्षतापूर्ण व्यापारिक दोहन में कठिनाइयाँ हैं।
(i) ज्वारीय ऊर्जा : घूर्णन गति करती पृथ्वी पर मुख्य रूप से चंद्रमा के गुरुत्वीय खिंचाव के कारण सागरों में जल का स्तर चढ़ता व गिरता रहता है। इस परिघटना को ज्वार-भाटा कहते हैं। ज्वार-भाटे में जल के स्तर के चढ़ने तथा गिरने से हमें ज्वारीय ऊर्जा प्राप्त होती है। ज्वारीय ऊर्जा का दोहन सागर के किसी संकीर्ण क्षेत्र पर बाँध का निर्माण करके किया जाता है।
बाँध के द्वार पर स्थापित टरबाइन ज्वारीय ऊर्जा को विध्युत ऊर्जा में रूपांतरित कर देती है।
(ii) तरंग ऊर्जा : समुद्र तट के निकट विशाल तरंगों की गतिज ऊर्जा को भी विध्युत उत्पन्न करने के लिए इसी ढंग से ट्रेप किया जा सकता है।
महासागरों के पृष्ठ पर आर-पार बहने वाली प्रबल पवन तरंगें उत्पन्न करती है। तरंग ऊर्जा का वहीं पर व्यावहारिक उपयोग हो सकता है जहाँ तरंगें अत्यंत प्रबल हों। तरंग ऊर्जा को ट्रेप करने के लिए विविध युक्तियाँ विकसित की गर्इ हैं ताकि टरबाइन को घुमाकर विध्युत उत्पन्न करने के लिए इनका उपयोग किया जा सके।
(iii) महासागरीय तापीय ऊर्जा : समुद्रों अथवा महासागरों के पृष्ठ का जल सूर्य द्वारा तप्त हो जाता है जबकि इनके गहरार्इ वाले भाग का जल अपेक्षाकृत ठंडा होता है। ताप में इस अंतर का उपयोग सागरीय तापीय ऊर्जा रूपांतरण विध्युत संयंत्र (Ocean Thermal Energy Conversion Plant या OTEC विध्युत संयंत्र) में ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। OTEC विध्युत संयंत्र केवल तभी प्रचालित होते हैं जब महासागर के पृष्ठ पर जल का ताप तथा 2 km तक की गहरार्इ पर जल के ताप में 20º C का अंतर हो। पृष्ठ के तप्त जल का उपयोग अमोनिया जैसे वाष्पशील द्रवों को उबालने में किया जाता है। इस प्रकार बनी द्रवों की वाष्प फिर जनित्र के टरबाइन को घुमाती है। महासागर की गहराइयों से ठंडे जल को पंपों से खींचकर वाष्प को ठंडा करके फिर से द्रव में संघनित किया जाता है।
महासागरों की ऊर्जा की क्षमता (ज्वारीय-ऊर्जा, तरंग-ऊर्जा तथा महासागरीय-तापीय ऊर्जा) अति विशाल है परंतु इसके दक्षतापूर्ण व्यापारिक दोहन में कठिनाइयाँ हैं।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
(C) भूतापीय ऊर्जा : भौमिकीय परिवर्तनों के कारण भूपर्पटी में गहराइयों पर तप्त क्षेत्रों में पिघली चट्टानें ऊपर धकेल दी जाती हैं जो कुछ क्षेत्रों में एकत्र हो जाती हैं। इन क्षेत्रों को तप्त स्थल कहते हैं। जब भूमिगत जल इन तप्त स्थलों के संपर्क में आता है तो भाप उत्पन्न होती है। कभी-कभी इस तप्त जल को पृथ्वी के पृष्ठ से बाहर निकलने के लिए निकास मार्ग मिल जाता है। इन निकास मार्गों को गरम चश्मा अथवा ऊष्ण स्त्रोत कहते हैं।
कभी-कभी यह भाप चट्टानों के बीच में फँस जाती है जहाँ इसका दाब अत्यधिक हो जाता है। तप्त स्थलों तक पाइप डालकर इस भाप को बाहर निकाल लिया जाता है। उच्च दाब पर निकली यह भाप विध्युत जनित्र की टरबाइन को घुमाती है जिससे विध्युत उत्पादन करते हैं। इसके द्वारा विध्युत उत्पादन की लागत अधिक नहीं है परंतु ऐसे बहुत कम क्षेत्र हैं जहाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से इस ऊर्जा का दोहन करना व्यावहारिक है। न्यूजीलैंड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भूतापीय ऊर्जा पर आधारित कर्इ विध्युत शक्ति संयंत्र कार्य कर रहे हैं।
कभी-कभी यह भाप चट्टानों के बीच में फँस जाती है जहाँ इसका दाब अत्यधिक हो जाता है। तप्त स्थलों तक पाइप डालकर इस भाप को बाहर निकाल लिया जाता है। उच्च दाब पर निकली यह भाप विध्युत जनित्र की टरबाइन को घुमाती है जिससे विध्युत उत्पादन करते हैं। इसके द्वारा विध्युत उत्पादन की लागत अधिक नहीं है परंतु ऐसे बहुत कम क्षेत्र हैं जहाँ व्यापारिक दृष्टिकोण से इस ऊर्जा का दोहन करना व्यावहारिक है। न्यूजीलैंड तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भूतापीय ऊर्जा पर आधारित कर्इ विध्युत शक्ति संयंत्र कार्य कर रहे हैं।
ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत
नाभिकीय ऊर्जा :
नाभिकीय विखंडन :
एक भारी नाभिक का ऊर्जा के मुक्त होने के साथ दो तुलनात्मक द्रव्यमानों (अधिक ऊर्जावान कण की बौछार के बाद) वाले दो हल्के नाभिकों में टुटने के प्रक्रम को नाभिकीय विखण्डन कहते हैं।
U235 की विखण्डन अभिक्रिया
92U235 + 0n1 → 56Ba141 + 36Kr92 + 30n1 + Q
♦ U235 के विखण्डन में मुक्त ऊर्जा लगभग 200 MeV या 0.8 MeV प्रति न्यूक्लिऑन होती है।
♦ U235 का विखण्डन केवल मंद न्यूट्रॉन (1eV के लगभग ऊर्जा) या तापीय न्यूट्रॉन (0.025 eV के लगभग ऊर्जा) के द्वारा होता है।
♦ विखण्डन प्रक्रिया के दौरान मुक्त हुए न्यूट्रॉन अविलम्ब (prompt) कहलाते हैं।
♦ मुक्त हुर्इ ऊर्जा में से अधिकांश विखंडित अंशों की गतिज ऊर्जा के रूप में दिखार्इ पड़ती है।
नाभिकीय संलयन :
यह प्रेक्षित किया गया है कि हल्के तत्वों के नाभिक के लिए विशिष्ट स्थितियों में यह सम्भव होता है कि वे मिल जाये और एक उच्च परमाणु क्रमांक का नाभिक बनाये। जब दो या अधिक हल्के नाभिक, जो बहुत उच्च चाल से गतिशील हैं, एक साथ संलयित होकर भारी नाभिक बनाते हैं, तब यह प्रक्रिया नाभिकीय संलयन कहलाती है।
उत्पाद नाभिक का द्रव्यमान, संलयित होने वाले नाभिकों के द्रव्यमानों के योग से कम होता है। विलुप्त द्रव्यमान, ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है, जो प्रक्रिया में मुक्त होती है।
ट्राइटन जो इस तरह बनता है, आगे जाकर एक α–कण (Helium–नाभिक) बनाने के लिए तीसरे ड्यूट्रॉन से संलयित होता है।
नाभिकीय विखंडन :
एक भारी नाभिक का ऊर्जा के मुक्त होने के साथ दो तुलनात्मक द्रव्यमानों (अधिक ऊर्जावान कण की बौछार के बाद) वाले दो हल्के नाभिकों में टुटने के प्रक्रम को नाभिकीय विखण्डन कहते हैं।
U235 की विखण्डन अभिक्रिया
92U235 + 0n1 → 56Ba141 + 36Kr92 + 30n1 + Q
♦ U235 के विखण्डन में मुक्त ऊर्जा लगभग 200 MeV या 0.8 MeV प्रति न्यूक्लिऑन होती है।
♦ U235 का विखण्डन केवल मंद न्यूट्रॉन (1eV के लगभग ऊर्जा) या तापीय न्यूट्रॉन (0.025 eV के लगभग ऊर्जा) के द्वारा होता है।
♦ विखण्डन प्रक्रिया के दौरान मुक्त हुए न्यूट्रॉन अविलम्ब (prompt) कहलाते हैं।
♦ मुक्त हुर्इ ऊर्जा में से अधिकांश विखंडित अंशों की गतिज ऊर्जा के रूप में दिखार्इ पड़ती है।
नाभिकीय संलयन :
यह प्रेक्षित किया गया है कि हल्के तत्वों के नाभिक के लिए विशिष्ट स्थितियों में यह सम्भव होता है कि वे मिल जाये और एक उच्च परमाणु क्रमांक का नाभिक बनाये। जब दो या अधिक हल्के नाभिक, जो बहुत उच्च चाल से गतिशील हैं, एक साथ संलयित होकर भारी नाभिक बनाते हैं, तब यह प्रक्रिया नाभिकीय संलयन कहलाती है।
उत्पाद नाभिक का द्रव्यमान, संलयित होने वाले नाभिकों के द्रव्यमानों के योग से कम होता है। विलुप्त द्रव्यमान, ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है, जो प्रक्रिया में मुक्त होती है।
ट्राइटन जो इस तरह बनता है, आगे जाकर एक α–कण (Helium–नाभिक) बनाने के लिए तीसरे ड्यूट्रॉन से संलयित होता है।
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The traditional sources of energy ऊर्जा के परम्परागत स्त्रोत