राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व (जो अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक हैं) के अनुच्छेद 44 में लिखा है कि देश को भारत के सपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करना चाहिए.
संविधान निर्माण करते वक़्त बुद्धिजीवियों ने सोचा कि हर धर्म के भारतीय नागरिकों के लिए एक ही सिविल कानून रहना चाहिए. इसके अन्दर आते हैं:—
1. Marriage विवाह
2. Succession संपत्ति-विरासत का उत्तराधिकार
3. Adoption दत्तक ग्रहण
यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने का मतलब ये है कि शादी, तलाक और जमीन जायदाद के उत्तराधिकार के विषय में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। फिलहाल हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने-अपने पर्सनल लॉ के तहत करते हैं।
समान नागरिक संहिता के विषय में चर्चा कब शुरू हुई? When did the discourse on Uniform/Common Civil Code start?
जब ब्रिटिश भारत आये तो उन्होंने पाया कि यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी आदि सभी धर्मों के अलग-अलग धर्म-सबंधित नियम-क़ानून हैं. जैसे हिन्दू धर्म में:-
1. पुनर्विवाह वर्जित था (Hindu Widow Remarriage Act of 1856 द्वारा ख़त्म किया गया)
2. बाल-विवाह का अनुमान्य था, शादी की कोई उम्र-सीमा नहीं थी
3. पुरुष के लिए बहुपत्नीत्व हिन्दू समाज में स्वीकार्य था
4. स्त्री (जिसमें बेटी या पत्नी दोनों शामिल थे) को उत्तराधिकार से वंचित रखा जाता था
5. स्त्री के लिए दत्तक पुत्र रखना वर्जित था
6. विवाहित स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार नहीं था (Married Women’s Property Act of 1923 द्वारा उसे ख़त्म किया गया)
मुस्लिम धर्म में:-
1. पुनर्विवाह की अनुमति थी
2. उत्तराधिकार में स्त्री का कुछ हिस्सा था
3. तीन बार तलाक बोलने मात्र से अपने जीवन से पुरुष स्त्री को हमेशा के लिए अलग कर सकता था.
अंग्रेजों ने शुरू में इस पर विचार किया कि सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक ही नागरिक संहिता बनायी जाए. पर धर्मों की विविधता और सब के अपने-अपने कानून होने के कारण उन्होंने यह विचार छोड़ दिया. इस प्रकार अंग्रेजों के काल में विभिन्न धर्म के धार्मिक विवादों का निपटारा कोर्ट सम्बन्धित धर्मानुयायियों के पारम्परिक कानूनों के आधार पर करने लगी.
हिंदू कोड बिल क्या था? What was Hindu Code Bill?
भारत आजाद तो हो चुका था. मगर सही मायने में अब भी कई संकीर्ण मानसिकताओं का गुलाम बना हुआ था. जहाँ एक ओर हिन्दू पुरुष एकाधिक विवाह कर सकते थे वहीँ दूसरी ओर एक विधवा औरत पुनर्विवाह (re-marriage) का सोच भी नहीं सकती थी. महिलाओं को उत्तराधिकार और सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया था. महिलाओं के जीवन में इन सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के लिए नेहरु (Nehru) ने हिन्दू कोड बिल का आह्वाहन किया. भीमराव अम्बेडकर (Bheemrao Ambedkar) भी इस मामले में नेहरु के साथ खड़े नज़र आये. पर इस बिल का पूरे संसद में पुरजोर विरोध हुआ. लोगों का कहना था कि संसद में उपस्थित सभी गण जनता द्वारा चयनित नहीं है और यह एक बहुल समुदाय के धर्म का मामला है इसीलिए जनता द्वारा बाद में विधिवत् चयनित प्रतिनिधि ही इस पर निर्णय लेंगे. दूसरा पक्ष यह भी रखा गया कि आखिर हिन्दू धर्म को ही किसी ख़ास बिल बनाकर बाँधने की जरूरत क्यों पड़ रही है, अन्य धर्मों को क्यों नहीं? इस प्रकार आजादी के पहले हिन्दू नागरिक संहिता Hindu Civil Code बनाने का प्रयास असफल रह गया. बाद में संविधान के अंदर 1952 में पहली सरकार गठित होने पर इस दिशा में कार्रवाई शुरू हुई और विवाह आदि विषयों पर हिन्दुओं के लिए अलग-अलग कोड बनाये गये.
अन्य लोग हिन्दू कोड लाने के लिए बढ़-चढ़ के प्रयास कर रहे नेहरु का इस मामले में निजी स्वार्थ भी देख रहे थे. नेहरु का कोई बेटा नहीं था. नेहरु की सिर्फ एक बेटी थी- इंदिरा. नेहरु चाहते थे उनकी सारे धन-दौलत, प्रॉपर्टी, किताबों की रोयल्टी से मिलने वाले पैसे आदि तमाम चीजों का उत्तराधिकार इंदिरा गाँधी को मिले. इसीलिए वह हिन्दू कोड बिल को लाने के लिए प्रयासरत थे.
1955 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया गया जिसके तहत तलाक को कानूनी दर्जा मिला. अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार दिया गया और एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. इसके अलावा 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम लागू हुए. ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे. इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिया गया. लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया. यह कानून हिंदुओं के अलावा सिखों, बौद्ध और जैन धर्म पर लागू होता है.
सुप्रीम कोर्ट में शाह बानो केस Case of Shaah Bano in Supreme Court
शाह बानो केस Shaah Bano Case शाह बानो vs उसका पति/शौहर —1978 में मध्य प्रदेश में रहने वाली शाह बानो के पति ने उसे तलाक दे दिया. 6 बच्चों की माँ शाह बानो के पास जीविका का कोई साधन नहीं था. इसलिए उसने गुजारे का दावा (alimony) करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाज़ा खटखटाया. वह केस जीत गयी और सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया (जो सभी धर्मों पर लागू होता था) कि शाह बानों को निर्वाह-व्यय के समतुल्य आर्थिक मदद(maintenance expenses) दी जाए. भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों (orthodox Muslims) ने इसका विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट के इस कदम को उनकी संस्कृति और विधानों पर अनधिकार हस्तक्षेप माना.
भारत सरकार कांग्रेस-आई के कमान में थी और उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त था. कुछ ही समय बाद चुनाव होने वाला था. मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए या मुस्लिम वोट बैंक को ध्यान में रखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने संसद् से The Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act 1986 पास करा दिया जिससे सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो केस में किये गए निर्णय को निरस्त कर दिया गया और alimony को आजीवन न रखकर तलाक के बाद के 90 दिन तक सीमित कर दिया गया.
मुस्लिम सामान नागरिक संहिता के खिलाफ क्यों हैं? Why are Muslims against Uniform Civil Code?
मुसलमानों का कहना है कि हमारे लिए अलग से कोई भी कानून बनाने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि हमारे लिए कानून पहले से ही बने हुए हैं जिनका नाम है शरीयत (shariyat). हम न इससे एक इंच आगे जा सकते हैं, न एक इंच पीछे. हमें इससे मतलब नहीं है कि बाकी कौम अपने लिए कैसा सिविल कोड (civil code) चाहते हैं. हमारा सिविल कोड वही होगा जिसकी अनुमति हमारा धर्म देता है.
क्या मुस्लिमों का यह विरोध उचित है? Is the objection of Muslims justified?
अधिकांश विचारकों का यह मानना है कि एक देश में कानून भी एक ही होना चाहिए, चाहे वह दंड विधान (penal code) हो या नागरिक विधान (civil code). अंग्रेजों ने इसके लिए कोशिश की थी पर उन्होंने मात्र एक दंड विधान(Indian penal code) को लागू किया और नागरिक विधानों के पचड़े में नहीं पड़े. सच्चाई यह है कि ऐसा मुस्लिमों के विरोध के चलते हुआ जबकि अन्य धर्मावलम्बी उसके लिए तैयार थे.
कई विचारकों का कहना है कि तुष्टीकरण (appeasement) के तहत उठाया गया अंग्रेजों का यह कदम देश के लिए हितकर नहीं था. वस्तुतः समान नागरिक संहिता किसी भी देश के लिए निम्नलिखित कारणों से आवश्यक होती है—
१. एक ही नागरिक संहिता होने से विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता की भावना पैदा होती है
२. इससे राष्ट्र्भावना भी पनपती है.
३. एक ही विषय में अलग-अलग कानूनों की भरमार होने से न्यायतंत्र को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
४. शरीयत की जिद कोई ऐसी जिद नहीं है जिसपर सभी देशों के मुसलमान अड़े हुए हैं. कई देश, जैसे:- टर्की, ट्युनीशिया, मोजाम्बिक आदि मुस्लिम देशों ने ऐसे नागरिक कानून बनाए हैं जो शरीयत के अनुसार नहीं है.
५. समय के अनुसार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों ने अपनी-अपनी नागरिक संहिताओं में परिवर्तन किये हैं. उदाहरण के लिए हिन्दू नागरिक संहिता, जो कि जैनों, बौद्धों, सिखों आदि पर भी लागू होती है, पूर्ण रूप से हिन्दू धार्मिक परम्पराओं के अनुरूप नहीं है. इसमें हमेशा बदलाव किये जाते रहे हैं.
क्या समान नागरिक संहिता केवल मुस्लिम नागरिक कानून में बदलाव लाएगी? Will the Uniform Civil Code warrant changes in Muslim Civil Law only?
यह धारणा गलत है कि कॉमन सिविल कोड केवल मुस्लिम नागरिक कानून में बदलाव लाएगी. कई बार महिला संगठनों ने यह बात हमारे सामने रखी है कि हर धर्म के अपने-अपने धर्म-कानूनों में एक समान बात है, और वह है– ये सभी कानून स्त्री के प्रति भेदभाव पर आधारित हैं (based on women discrimination).
उदाहरण के लिए, हिन्दू में जो उत्तराधिकार को लेकर कानून है वह पूरी तरह से नारी और पुरुष के बीच भेदभाव पर आधारित है. इसीलिए आज जब भी कोई समान नागरिक संहिता बनेगी, जो सम्पूर्ण रूप से आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, पक्षपातरहित और प्रगतिशील होगी, तो हिन्दू नागरिक कानून में भी बदलाव आवश्यक होगा.
यह बदलाव “हिन्दू अविभाजित परिवार” Hindu undivided family के उत्तराधिकार नियमों में भी लाना होगा. उसी तरह, मुस्लिम, ईसाई और अन्य व्यक्तिगत कानूनों में भी बदलाव आएगा.