संविधान निर्माण के आरम्भिक चरण
रेग्युलेटिंग एक्ट , 1773
- 1773 ई. में बंगाल के प्रथम गवर्नर जनरल बने वारेन हेस्टिंग्ज ने रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया |
- इस एक्ट के तहत ईस्ट इण्डिया कम्पनी के क्रियाकलापों को ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में लाया गया , कलकत्ता में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई |
भारत शासन अधिनियम , 1858
- 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने ईस्ट-इंडिया कम्पनी के प्रशासन को बुरी तरह प्रभावित किया | इसके परिणाम स्वरूप पार्लियामेंट को भारत शासन अधिनियम 1858 को पारित करना पड़ा |
- इस अधिनियम से भारतीय शासन सीधे सम्राट के नियंत्रण में आ गया |
- सम्राट की शक्तियों का उपयोग सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फोर इंडिया द्वारा 15 सदस्यीय भारत परिषद की सहायता से किया जाने लगा |
- अधिनियम के तहत इस परिषद में इंगलैंड के व्यक्तियों को शामिल किया गया जिनमे 8 सदस्य नामांकित तथा शेष ईस्ट-इंडिया कम्पनी के निदेशको के प्रतिनिधि होते थे | सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उतरदाई होता था |
- भारत के राज्य सचिव को एक निकाय निगम घोषित किया गया , जिसके फलस्वरूप उसे वाद चलाने तथा उस पर वाद संस्थित किये जाने का प्राधिकार हुआ |
- इस अधिनयम में जनता को बिलकुल महत्व नहीं दिया गया |
अधिनयम 1858 की विशेषताए
- ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत के शासन का अधिग्रहण कर लिया गया ||
- भारत मंत्री और उसकी परिषद की स्थापना हुई |
- भारतीय शासन के अंतर्गत पदों पर नियुक्तिया करने की शक्ति सम्राट सपरिषद भारत मंत्री और भारत स्थिति उच्चाधिकारियों के बीच बाँट दी गई |
- भारत मंत्री को भारत के वायसराय के साथ गुप्त पात्र व्यवहार करने का अधिकार दिया गया |
- भारत मंत्री को निकाय घोषित किया गया |
- भारत मंत्री ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों के समक्ष भारत के व्यय का ब्यौरा और भारत के भौतिक एवं नैतिक विकास की रिपोर्ट प्रस्तुत करने की व्यवस्था की गई |
- इस अधिनियम के तहत यह व्यवस्था की गई की मारत की सीमा के बाहर , संसद की अनुमति के बिना , सैनिक कार्यवाही कर भारत के राजस्व को खर्च नहीं किया जा सकता |
- अधिनियम के तहत यह व्यवस्था की गई की कम्पनी ने जो संधिया, अनबंध एवं समझोते किये है वे सभी क्राउन के मान्य होंगे |
भारत परिषद अधिनियम , 1861
भारत परिषद अधिनियम 1861 में लोक प्रतिनिधित्व की अवधारण का नाममात्र का समावेश किया गया था | यह अधिनयम भारत के संवैधानिक विकास में मुख्य रूप से निम्न दो कारणों से महत्वपूर्ण था –
- कानून बनाने के कार्य में भारतीयों का सहयोग लेना प्रारभ किया गया |
- प्रांतीय विधानसभाओ को कानून बनाने का अधिकार दिया गया जिससे प्रांतीय स्वायत्ता तथा गवर्नर जनरल को विधान सभा में भारतीयों को मनोनित करने का अधिकार मिल गया |
अधिनियम , 1861 की विशेषताए
- वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में वायसराय , प्रधान सेनापति के अतिरिक्त चार सदस्यों के स्थान पर पांच सदस्यों की वयवस्था की गई |
- वायसराय की विधान परिषद में सदस्य संख्या में वृद्धि कर न्यूनतम 6 एवं अधिकतम 12 तक की गई |
- विधान परिषद की शक्तियों को स्पष्ट किया गया |
- अधिनयम के अंतर्गत असाधारण स्थिति में वायसराय को किसी भी विषय पर छ: माह तक के लिए अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया |
- प्रान्तों को पुन: विधि निर्माण की शक्ति प्रदान की गई | ज्ञातव्य है की 1833 के अधिनयम के अंतर्गत बम्बई के विधि-निर्माण के जो अधिकार चीन लिए थे |
- वायसराय को कार्यकारिणी परिषद के संबंध में नियम बनाने का अधिकार दिया गया |
- प्रान्तों में विधान परिषदे स्तापित करने का अधिकार वायसराय को दिया गया |
भारत परिषद अधिनियम , 1892
- 1892 के अधिनियम के महत्व पर ध्यान प्रकट करते हुए श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था की “ 1892 के अधिनियम से भारत में पतिनिध्यात्मक शासन की नीव से पड़ी “ |
- इसी प्रकार श्री राम शर्मा के अनुसार “ भारत परिषद अधियम 1892 ने भारत में से विधान परिषदों के कार्यो में वृद्दि की और उन्हें नि:सन्देह ‘लघु संसदों ‘ के रूप में परिवर्तित कर दिया |
अधिनियम की विशेषताए , 1892
- केंद्र के कौसिलरो की संख्या कम-से-कम 10 और आधिक से आधिक 16 निश्चित की गई |
- इस अधिनयम से तहत गैर-सरकारी सदस्यों की नाम लेखन के लिए एक प्रकार से परोक्ष निर्वाचन प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ |
- अधिनियम से अंतर्गत कौसिलो में तीन प्रकार के सदस्यों की व्यवस्था की गई –
- सरकारी सदस्य
- गैर-सरकारी सदस्य – ये शासनाध्यक्ष द्वारा नामजद होते थे |
- गैर-सरकारी सदस्य – ये परोक्ष रुप से निर्वाचित होते थे
- इस अधिनियम के अंतर्गत कौसिल के बजट पर वाद विवाद करने और ‘ कार्यकारणी परिषद ‘ से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया |
भारत परिषद अधिनियम , 1909
( मार्ले मिण्टो अधिनियम )
- 1905 में लार्ड कर्जन के स्थान पर लार्ड मिण्टो भारत के वायसराय नियुक्ति हुए और जोन मार्ले भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाये गए |
- लॉर्ड मार्ले उदारवादी थे और भारतीय प्रशासन में सुधारो के समर्थक थे | लॉर्ड मिनटों इन सुधारो से सहमत थे |
- मार्ले मिनटों के सुधारो द्वारा केंद्रीय विधानसभा के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई जिससे परिषद की कुल संख्या 69 हो गई |
- विधान परिषदों के विचार-विमर्श के कृत्यों में भी अधिनियम द्वारा वृद्धि हुई |
अधिनियम , 1909 की विशेषताए
- प्रान्तीय विधान परिषदों के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई |
- केन्द्रमे सरकारी और प्रान्तीय विधान परिषदों में गैर सरकारी बहुमत स्थापित किया गया |
- इस अधिनियम में मुसलमानों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र बनाने की व्यवस्था की गई |
- इस अधिनयम के तहत विधान परिषदों के अधिकारों में वृद्धि की गई | अड़ सदस्यों को एक पूरक प्रश्न पूछने एवं सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रस्ताव रखने का अधिकार दिया गया |
- इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषद में भारतीयों को सम्मलित करने का प्रावधान किया गया |
भारत शासन अधिनियम , 1919
( मान्टेग्यु चेम्सफोर्ड अधिनियम )
- मान्टेग्यु चेम्सबोर्ड प्रतिवेदन भारत में संविधानवाद के विकास में एक महत्वपूर्ण घटना है |
- 1919 के अधिनियम को भारत के संवैधानिक इतिहास में प्रतिनिध्त्यात्मक शासन के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण माना जाता है | इस अधिनियम ने देश में संसदीय शासन के स्वरूप को यथार्थ और वास्तविक स्वरूप प्रदान किया |
- इस अधिनियम द्वारा प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रयास किया गया |
- अधिनियम के तहत प्रशासन के विषयों को निम्न दो प्रमुख वर्गों में बांटा गया :-
- केन्द्रीय प्रशासन
- प्रांतीय प्रशासन
- केन्द्रीय विषयों में उन्हें शामिल किया गया जो केन्द्र सरकार के नियंत्रण में अनन्य रूप में रखे गये |
- प्रान्तीय विषयों को अंतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा विधान परिषद के उत्तरदायी मंत्रीयों की सहायता से किया जाना था |
- उत्तरदायी सरकार की नींव अंतरित विषयों के संकीर्ण क्षेत्र में डाली गई |
- अधिनियम के तहत विधान परिषद सदस्यों का अनुपात बढ़ाकर 70% किया गया |
- आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारी परिषद द्वारा किये जाने का प्रावधान किया गया | इसमें मंडल के प्रति कोई उत्तरदायी नहीं था |
- भारतीय विधान मण्डल को और अधिक प्रतिनिधित्व बनाया गया | केन्द्र के उत्तरदायित्व को स्थान नहीं दिया गया |
- गवर्नर जनरल भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के माध्यम से ब्रिटिश संसद उत्तरदायी बना रहा |
- पहली बार राज्य परिषद का नाम दिया गया | इसमें कुल 144 सदस्य निर्वाचित थे एवं शेष नामांकित किये जाते थे |
- मताधिकार- मतदान का अधिकार अत्यंत सीमित एवं संकुचित था | मताधिकार की अर्हता संपति के अधिकार पर निर्धारित की जाती थी | स्त्रिया को न ही मताधिकार प्राप्त था और न ही उन्हें परिषदों की सदस्य बन पाती थी
- केंद्रीय विधान मण्डल के दोनों सदनों को समान अधिकार प्राप्त थे | केंद्रीय सूची में वर्णित विषयों पर कानून बना सकते थे |
- केन्द्रीय कानूनों की वैधता को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी केंद्र और राज्य में किसी भी विषय को लेकर विवाद होने पर जनरल ही निर्णय करता था की अमुक विषय पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को है या प्रान्तों को |
- गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना प्रमुख विषयों से संबंधित विधेयक विधानमंडल में नहीं लाये जा सकते थे |
- गवर्नर जनरल को पाताकालीन में अध्यादेश जारी करने का अधिकार था |
- यह अधिनियम भी भारतीय नेताओ की उत्तरदायी सरकार की मांग को पूरा नहीं कर सका क्योंकि केन्द्र सरकार का स्वरूप एकात्मक ही रखा गया था |
- इस अधिनयम के तहत सम्पूर्ण शक्ति केंद्र में निहित थी |
अधिनियम , 1919 की विशेषताए
- प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायी शासन या द्वैध शासन लगाया गया |
- प्रान्तीय कार्यपालिका को दो भागो में विभाजित किया गया |
- (1) गवर्नर एवं उसके सभासद- प्रान्तों में गवर्नर एवं उसके सभासदों को प्रान्तीय सूची के कुल 51 विषयों में से 29 विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया | इन आरक्षित विषयों में पुलिस , जेल , न्याय , वित्त , भूराजस्व सिंचाई आदि थे |
- (2) गवर्नर एवं उनके मंत्री – प्रान्तीय प्रशासन के दुसरे 22 विषयों को हस्तांतरित विषय का नाम दिया गया | मंत्री इस विषयों के प्रशासन के लिए विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे | इन विषयों में कृषि , शिक्षा , स्थानीय स्वशासन , सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि शामिल थे |
- इस अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय सरकार के स्वरूप में कोई परिवर्तन नही किया गया | इसके तहत केंद्र की कार्यपालिका पूर्व की भाँती ही अनुत्तरदायी बनी रही |
- इस अधिनियम द्वारा मुलमानो को पृथक से प्रतिनिधित्व दिया गया | पंजाब से सिक्खों को , कुछ प्रान्तों में यूरोपियन को , एंग्लो-इन्डियनो को और भारतीय ईसाइयो को भी अलग से प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया | अर्थात यह साम्प्रदायिक मताधिकार को बढ़ावा देने वाला अधिनियम था |
- इस अधिनियम में केन्द्रीय विधान मण्डल में दो सदन स्थापित किये गए |
- गवर्नर जनरल एवं गवर्नरो को कुछ विशेषअधिकार दिए गए |
- नरेश मण्डल के अंतर्गत प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गई और मताधिकार को 3% से बढ़ाकर 10% कर दिया गया |
भारत शासन अधिनियम , 1935
- संवैधानिक सुधारो की श्रृंखला में यह ब्रिटिस शासन का अंतिम अधिनियम था |
- अपरिभाषित एवं अस्पष्ट – 1935 में भारत शासन अधिनियम को कोई भूमिका लिखी हुई नहीं थी | इस अधिनियम की प्रकृति , उद्देश्य तथा क्षेत्र स्पष्ट नहीं थे | इस अधिनियम में यह भी स्पष्ट नहीं था की इसके द्वारा ब्रिटिश भारत में किस नई नीति का प्रतिपादन किया जा रहा है | 1919 के अधिनियम को भूमिका को 1935 के अधिनियम द्वारा उत्तरदायी सरकार की स्थापना की नीति को ही इसमें दोहराया गया | इसमें स्पष्ट था की ब्रिटिश शासक भारत के लिए पूर्ण स्वराज्य को नहीं ‘ औपनिवेशिक राज्य ‘ की कल्पना करते थे |
- अप्रस्तावित भारतीय संघ – 1935 के अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ की व्यवस्था की गई थी इसमें देशी रियासतों को प्रस्तावित संघ में मिलाने करने का प्रस्ताव था | इसका निर्माण 11 ब्रिटिश प्रान्तों , 6 चीफ कमिश्नर के क्षेत्र और स्वेच्छा से शामिल होने वाली देशी रियासतों को मिलाकर किया जाना था | ब्रिटिश प्रान्त और चीफ कमिश्नर के क्षेत्र के लिए इसमें शामिल होना अनिवार्य था |
- देशी राजाओ के विरोध और द्वितीय विश्वयुद्ध के आरम्भ हो जाने से प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ की स्थापना नहीं हो सकी |
- केन्द्रय , समवर्ती एवं राज्य सूची – 1935 के अधिनियम के साथ संलग्न परिशिष्ट में संघीय और प्रान्तीय व्यव्स्थापिकाओ के अधिकार की सूचिया थी | केंद्रीय सूची में 59 विषय थे | जिनमे सुरक्षा , विदेशी मामले , मुद्रा डाक एवं तार , संघीय लोक सेवा जेसे विषय शामिल थे |
- प्रान्तीय सूची में 54विषय थे जिनमे शिक्षा , बहु-राजस्व , सार्वजनिक स्वस्थ्य , न्याय आदि स्थानीय महत्व के विषय शामिल थे |
- समवर्ती सूची में 36 विषय जिनमे प्रमुख दीवानी और फौजदारी कानून , विवाह , तलाक , कारखाने , श्रम कल्याण आदि थे |
- केंद्र सूची में उल्लेखित विषयों पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था |
- समवर्ती सूची में उल्लेखित विषयों पर केन्द्रीय और प्रान्तीय दोनोंसरकार कानून बना सकती है | विरोध भी होने पर केन्द्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून ही लागू होता है |
- इस अधिनियम में संघ लोकसेवा आयोग की सिफारिश की गई |
- प्रान्तीय स्वतंत्रता /द्वैध शासन – प्रान्तीय स्वतंत्रता 1935 के अधिनियम की प्रमुख विशेषता थी | अधिनियम का यही एकमात्र ऐसा भाग था जिसे क्रियान्वित किया गया था | एवं अन्य भाग अखिल भारतीय संघ न बन पाने के कारण निष्क्रिय रहे |
- द्वैध शासन प्रणाली से प्रान्तों में द्वैध प्रणाली समाप्त डर दी गई | सुरक्षित और हस्थानरित विषयों के भेद को समाप्त कर दिया |
- प्रान्तों के सभी विभागों पर मंत्रियो को नियंत्रिन स्तापित कर दिया |
- मंत्री विधान सभा के बहुमत प्राप्त दल से सदस्य होते थे और वे उसके प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी थे |
- केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली – प्रान्तों से हटाकर केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई |
- अखिल भारतीय संघीय सरकार को दिये जाने वाले विषयों को सुरक्षित एवं हस्तांतरित दो भागो में विभक्त किया गया |
- सुरक्षा , विदेशी मामले , धार्मिक विषय और कबायली क्षेत्रों को हाथो में रखा गया और गवर्नर जनरल को इसका प्रबंधन गवर्नर जनरल के हाथो में रखा और गवर्नर जनरल को इसका प्रबन्धन करने का अधिकार दिया गया | वह इस हेतु तीन पार्षदों को नियुक्त कर सकता था |
- पार्षद सार्वजनिक नियंत्रण के अधीन नहीं रखे गये | वे भारत के सचिव और ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी थे |
- संरक्षण और आरक्षण इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताए थी | इनमे ब्रिटिश साम्राज्यवादियो से साम्राज्यीय हितो ब्रिटिश आर्थिक हितो, अल्पमत एक हितो , सेवाओ के हितो , रजवाडो के हितो , गवर्नर जनरल और गवर्नर जनरल की निरंकुशता आदि को छिपाने का प्रयतन किया गया था | ये इस बात के प्रतीक थे की भारतीयों को औपनिवेशिक , स्वराज्य प्राप्त नहीं होगा |
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